________________
१०
आप्तवाणी-६
जबकि ये औरों को दीक्षा की बात करके देखो? वे मना करेंगे। क्योंकि उन्होंने वैसे भाव ही नहीं किए थे।
कुदरत और बुद्धि का आशय यह 'वाइफ' मिलती है उसे, 'यह मेरी वाइफ बने' ऐसे कुछ भाव नहीं किए थे। कुछ भी भाव नहीं, जान-पहचान भी नहीं, वह तो बुद्धि के आशय के अनुसार मिल जाती है। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव ऐसे होते हैं कि कन्याओं की बहुत कमी हो जाए, तब उसकी बुद्धि के आशय में क्या होता है कि मुझे तो जैसी मिलेगी वैसी से शादी कर लूँगा, बस मिलनी चाहिए। तो उसे वैसी मिलती है। लेकिन फिर वह शोर मचाता है कि, 'यह स्त्री ऐसी है, वैसी है!' अरे, तूने ही निश्चित किया था न, अब किसलिए शोर मचा रहा है? वह फिर दूसरे की सुंदर स्त्री देखे तो उसे खुद के घर में अधूरा लगता है! लेकिन वापस संतोष तो खुद के घर में ही मिलता है। फिर कहेगा कि, 'मेरे घर पर ही रहूँगा!'
कुदरत क्या कहना चाहती है कि तेरे बुद्धि के आशय के अनुसार तुझे मिला है, उसमें तू कलह किसलिए कर रहा है? दूसरे का बंगला देखे
और अंदर कलह करता है, लेकिन फिर उसे अच्छा तो खुद का ही झोंपड़ा लगता है!
अंतिम प्रकार का बुद्धि का आशय __ बुद्धि के आशय में ऐसा हो कि 'ज्ञानी मिलें और अब कुछ छुटकारा हो जाए, अब तो थक गया इस भटकन से', तब उसे ज्ञानी मिल जाते हैं! अब ऐसा बुद्धि का आशय तो कोई करता ही नहीं है न? लोगों का यह मोह कहाँ से छूटे?
प्रतिष्ठा का कर्ता, परसत्ता में! द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव परिवर्तित होते ही रहते हैं। जितना मुँह से बोलते हैं, उतना अहंकार है, और उससे प्रतिष्ठा होती रहती है। यह अहंकार जो करता है, वह भी खुद नहीं करता, वह भी द्रव्य-क्षेत्र