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आप्तवाणी-६
हो, और उसके पीछे पुण्य हो, तो वह सब (संयोग) इकट्ठे कर देता है। चाहे जैसे छुपे हुए कर्म करता हो और लाख सी.आई.डी. उसके पीछे पड़ी हो, फिर भी उसका पता नहीं चलता और पाप का उदय हो तब आसानी से पकड़ में आ जाता है। यह कुदरत की कैसी व्यवस्था है न! है पुण्य, और फिर मन में खुश होता है कि 'मुझे कौन पकड़ सकता है?' ऐसा अहंकार करता रहता है। अब, जब फिर पाप का उदय हो, तब सौदा बंद हो जाता है।
__यह सब पुण्य चलाता है। तुझे हज़ार रुपये तनख्वाह कौन देता है? तनख्वाह देनेवाला तेरा सेठ भी पुण्य के अधीन है। पाप घेर लें, तब सेठ को भी कर्मचारी मारते हैं।
प्रश्नकर्ता : सेठ ने भाव किए होंगे, 'इसे नौकरी पर रखना है।' हमने भाव किए होंगे कि 'वहाँ नौकरी करनी है', इसलिए यह मिला?
दादाश्री : नहीं, ऐसा भाव नहीं होता। प्रश्नकर्ता : तो वह लेन-देन होगा? दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं। प्रश्नकर्ता : तो उसके पास नौकरी के लिए क्यों गया?
दादाश्री : नहीं, वह तो उसका हिसाब है सारा। सेठ की और उसकी जान-पहचान कुछ भी नहीं। सेठ के बुद्धि के आशय में ऐसा होता है कि मुझे ऐसे नौकर चाहिए और नौकर के बुद्धि के आशय में होता है कि मुझे ऐसे सेठ चाहिए। वह बुद्धि के आशय में छप चुका होता है, उस अनुसार मिल ही जाता है!
ये बच्चे पैदा होते हैं, वे भी बुद्धि के आशय के अनुसार होते हैं। 'मेरा इकलौता लड़का होगा तो भी बहुत हो गया, मेरा नाम रौशन करेगा।' उसकी बुद्धि के आशय के अनुसार नाम रौशन करता है। जैन ऐसा कहते हैं कि, 'मेरा बेटा है, वह दीक्षा ले तो बहुत अच्छा, उसका कल्याण तो होगा!' फिर जैनों के माँ-बाप बेटे को दीक्षा भी राजीखुशी से लेने देते हैं