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आप्तवाणी-६
दादाश्री : भगवान में और मोक्ष में आपको इन्टरेस्ट ही नहीं, इसलिए उसमें एकाग्रता नहीं रहती।
अरे, एक स्त्री बहुत सुंदर थी और उसका पति एकदम साँवला था। उस स्त्री से मैंने एक दिन पूछा, 'यह तेरा पति साँवला है, तो तेरा भाव उस पर संपूर्ण रहता है?' तब उसने कहा कि, 'मेरे पति मुझे बहुत प्रिय है।' अब ऐसा साँवला पति उसे प्रिय है, पर भगवान आपको प्रिय नहीं लगते! यह भी एक आश्चर्य है न!
फिर ये पूछती हैं कि, मेरा मन एकाग्र क्यों नहीं हो पाता? सब्जी लेने जाए, वहाँ एकाग्रता किस तरह हो जाती है? ये तो अनुभव की बातें हैं। यह कोई गप्प नहीं है। यह तो भगवान में इन्टरेस्ट ही नहीं, इसलिए एकाग्रता नहीं रहती। यह तो भगवान के प्रति आसक्ति हो जाएगी तो भगवान में एकाग्रता रहेगी।
जब तक पैसों में इन्टरेस्ट है तब तक पैसे-पैसे करता है और भगवान में इन्टरेस्ट आया तो पैसे का इन्टरेस्ट छूट जाएगा। यानी कि आपका इन्टरेस्ट बदलना चाहिए।
अब भगवान में इन्टरेस्ट नहीं है, तो उसमें आपका दोष नहीं है। जो वस्तु देखी नहीं हो, उसमें इन्टरेस्ट किस तरह आएगा? इस साड़ी को तो आप देखती हो, उसके रंगरूप देखते हैं इसलिए उसमें इन्टरेस्ट आएगा ही, लेकिन भगवान तो दिखते ही नहीं न? तब ऐसा कहा है कि, भगवान के प्रतिनिधि जैसे जो 'ज्ञानीपुरुष' हैं, वहाँ पर आपका इन्टरेस्ट रखो। वहाँ इन्टरेस्ट आएगा और उनमें इन्टरेस्ट आया, तो भगवान को पहुँच गया समझो।।
जहाँ कषाय हैं, वहाँ इन्टरेस्ट रहे तो वे इन्टरेस्ट कषायिक होते हैं। वह कषायिक प्रतीति है। वह प्रतीति टूट जाती है बाद में, यानी राग से बैठती और द्वेष से छूटती है और भगवान के प्रतिनिधि में इन्टरेस्ट राग से नहीं आता। उनके पास राग करने जैसा कुछ होता ही नहीं न?