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आप्तवाणी-२
मिलेगा। कवि कहते हैं न, 'मनमंदिर ना आंगणियामां कल्पतरुवर उगिया रे (मनमंदिर के आंगन में कल्पतरु उगे हैं)।' इसलिए यदि तुझे सांसारिक सुख चाहिए तो तुझे जो-जो पसंद नहीं है वह दूसरों को मत देना। मात्र, खुद के पास जो समझ है कि मुझे यह पसंद नहीं है, तुझे खुद को जिससे दुःख होता है वह तू दूसरों को मत देना। जिन्हें तू दुःख मानता है, उनसे आगे तो और कई दु:ख हैं, लेकिन तू जिसे दुःख मानता है वह दूसरों को देगा तो तेरे जैसा मूर्ख और कौन? तो फिर तुझे सुख मिलेगा किस तरह? जानबूझकर देना और अनजाने में देना, उसमें फर्क नहीं है?
बच्चा यदि काँच का प्याला फोड़ दे तो उसे दु:ख होता है? और बाप फोड़े तो? बाप को तो बहुत दुःख होता है। तू जिसे दुःख मानता है वह दूसरों को मत देना, तभी तू सुखी हो पाएगा। सुखी होने के लिए कोई शास्त्र पढ़ने की भी ज़रूरत नहीं है।
यह बात तो जिसे ज्ञान नहीं मिले वह भी समझता हैं। उससे क्या होता है कि दुःख आना बंद हो जाता है और सुख आना शुरू हो जाता है। यह तो, धर्म खुद के पास ही है। इसके लिए शास्त्रों की ज़रूरत नहीं है, इतना करेगा तो सुखी होगा ही। खुद पर जो इफेक्ट होता है वह सामनेवाले पर भी अवश्य होगा ही न? तेरे प्रति मेरी आँखों में तुझे कोई भाव महसूस नहीं हो तो तेरी आँखों में वैसे भाव मत लाना कि जिससे सामनेवाले को दु:ख हो। जिससे अपने को दुःख होता हो, उससे औरों को कैसे दुःख दे सकते हैं?
विचार
विचार किसे कहते हैं? मन की गाँठे फूटती हैं और जो फूटती हैं, वे विचार के रूप में हैं। विचार को खुद पढ़ सकता है। विचार तो उठाता है, बैठाता है, ऐसे ले जाता है, वैसे ले जाता है, दौड़ाता है, उसे विचार कहते हैं और जो उठाए नहीं, बैठाए नहीं, भागदौड़ नहीं करवाएँ वे पालतू विचार कहलाते हैं, और हम से उठक-बैठक करवाएँ वे पालतू विचार नहीं कहलाते।