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मन
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बड़ौदा में एक बहन ने पूछा, 'दादा, सबकुछ अच्छा-अच्छा ही किया है। पूरी जिंदगी दूसरों का भला ही किया है, फिर भी मन की शांति क्यों नहीं मिलती? भगवान के साथ चाहे जितना तार जोड़ें, फिर भी जी क्यों जलता है?' यह तो 'हमारे' हाथ की बात है, अधिकार 'हमारा' है, यह तो टॉप बात पूछी बहन ने। सभी ओर सब लोग घूम चुके हैं, फिर भी इन दो ही गलियों में उलझते रहते हैं। बहन ने तो सुंदर सार निकाला!
संसार के हर एक धर्म में मनोरंजन होता है, जबकि यहाँ 'ज्ञानीपुरुष' के पास आत्मरंजन होता है। मनोरंजन से उत्तेजना (जोशभरी खुशी) का अनुभव होता है, स्थिरता का अनुभव नहीं होता। जहाँ मन स्थिर हो, उस धर्म को सुनना चाहिए, लेकिन जहाँ पर मन चंचल हो जाता है, मनोरंजन होता है, ऐसे धर्म को सुनना किस काम का? किंचित् मात्र भी अंदर परिवर्तन हो, तब काम का। यह तो अस्सी साल तक उपाश्रय में व्याख्यान सुनते हैं, प्रवचन सुनते हैं, फिर भी कुछ भी बदलाव नहीं होता, तो वह काम का ही नहीं है न! उसे तो मनोरंजन किया कहा जाएगा। उससे स्थिरता नहीं होती। आत्मरंजन में आइस्क्रीम की तरह आत्मा स्थिर हो जाता है और मनोरंजन में उबलता है। मनोरंजन में मन जोश से भर जाता है, बाहर तो आत्मरंजन होगा ही किस तरह? यहाँ पर आओ, तब आत्मरंजन होगा। यहाँ पर तो, आए तभी से आत्मा स्वीकार करता है कि, 'अब मुक्ति होगी।' इसलिए उल्लास आता है। कैदी से कहें कि, 'थोड़े दिन बाद छूटनेवाले हो।' तब हालांकि कैदी को छोडा नहीं है, फिर भी उसे आनंद आता है, उसी तरह यहाँ पर आत्मरंजन होता है। यहाँ का एक-एक शब्द बहुत ही सूक्ष्मता से सुनने जैसा है। ज्ञानी का एक ही शब्द मोक्ष में ले जाएगा!
मन, जगत् - स्वरूप इस देह का आत्मा के साथ कोई रियल संबंध नहीं है। यह मन, वह तो पूरी दुनिया है। इसलिए यदि किसी को परेशान करें तो मन में दुःख उत्पन्न होता है और दूसरों को सुख दें तो सुख मिलता है। मन दुनिया है। दुनिया को सुख देंगे तो मन को सुख होगा। तू दूसरों को सुख देकर दुःख माँगेगा तो वह नहीं मिलेगा। मन तो दुनिया है। जैसा चलाएगा वैसा