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है, वहाँ 'मैं हूँ' ऐसा जो आरोप करता है, वही राग है। और जिसे 'मैं शुद्धात्मा हूँ,' वह लक्ष्य निरंतर है, उसके सर्व राग टूट गए हैं।
___'मुझे इस पर राग है' वैसी जो सामान्य समझ है, वह अयथार्थ है। हकीकत में आत्मा में राग नाम का गुण है ही नहीं। यह जो राग महसूस होता है, वह तो परमाणुओं का आकर्षण है और द्वेष महसूस होता है, वह परमाणुओं का विकर्षण है। यह सब पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) की करामात है, उसे, 'खुद' को ही राग-द्वेष होता है, ऐसा मानकर आत्मा को रागी-द्वेषी ठहरा देता है। आत्मा वीतरागी ही है और रहेगा। 'अज्ञान के प्रति प्रेम-वह राग और ज्ञान के प्रति प्रेम-वह वीतराग।'
- दादाश्री - जगत् का आधारस्तंभ 'बैर' है। यदि बैर निर्मूल हो जाए तो संसार सहजता से निर्मूल हो जाता है। बैर से छूटने का एक ही मार्ग है और वह है 'समभाव से फाइलों का निकाल (निपटारा) करो'। इस 'शस्त्र की शरण,' इस काल में ग़ज़ब की है। यह शस्त्र 'दादाश्री' ने सब को दिया है। अब इस शस्त्र को लेकर जो रण में जाता है, वह खरा शूरवीर। संसार, वह संग्राम ही है न? इस संग्राम में 'फाइलों' का समभाव से निकाल करो। इस दादाई शस्त्र को लेकर रण में उतरे, वह अवश्य विजय प्राप्त करता है और मिलता क्या है? मोक्ष! प्राप्त मन-वचन-काया को दादाश्री ने 'फाइल' कहा है और यह जिसे दर्शन में आ गया, उसकी अध्यात्म विजय हो गई! - चार्ज हो चुका एक परमाणु भी जहाँ असरवाला है, वहाँ अनंत परमाणुओं से भरे हुए भाजनों का संग क्या असरमुक्त हो सकता है? फिर वह संग सुसंग हो या कुसंग हो, असर होगा ही। सिर्फ 'सत्संग' ही ऐसा है कि जो सर्व संगों से असंग करवाए और यह 'सत्संग,' जैसा सामान्य अर्थ में कहा जाता है, वैसा नहीं है। 'ज्ञानीपुरुष' जो कि सर्व संग में होने के बावजूद निरंतर असंग रहते हैं, उनका सत्संग यदि प्राप्त हो तो किसी भी जीव को असंग पद प्राप्त हो जाए, ऐसा है। ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' का सत्संग हर रोज़ नया, नया और नया ही लगता है !
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