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हकीकत में सुख-दुःख नहीं हैं, वह तो शाता (सुख परिणाम) या अशाता (दुःख परिणाम) वेदनीय कर्म हैं, ऐसा भगवान ने कहा है। यह शाता या अशाता वेदनीय मुद्दती होते हैं, टेम्परेरी होते हैं। क्योंकि ये अवस्थाएँ हैं। अवस्था का अर्थ ही टेम्परेरी है। अब यदि सामान्य समझ के अनुसार इस वेदनीय कर्म को स्थायी मानकर बड़ा स्वरूप दिया जाए तो उससे खुद को बहुत सहन करना पड़ता है। संसार के सर्व सुख-दुःख अंतवाले हैं। खुद का स्वसुख ही अनंत है और वही प्राप्त कर लेने जैसा है।
सामान्य समझ से सुख-दुःख की कल्पनाएँ करके जो भयंकर कर्मबंधन बंध जाते हैं, उस कल्पना के स्थान पर दादाश्री ने बहुत ही सुंदर, सहज तरीके से यथार्थ 'ज्ञान-दर्शन' प्रदान किया है और इतना सरल कर दिया है कि उसकी गेड (अच्छी तरह समझ में आना) बैठ जाए और एक बार उसकी गेड़ बैठ जाए तो व्यवहारिक सुख-दुःख स्पर्श कर सकें, ऐसा नहीं है। कंटाला यानी काँटों के बिस्तर पर सोने से जो दशा होती है, वह !
- दादाश्री अब जिसने इस कंटाले का अनुभव नहीं किया हो, वैसा भाग्यशाली कौन हो सकता है? बडे-बड़े आचार्य, महाराज, साधु-सन्यासी और बड़ेबड़े महात्मा भी कंटाले (बोरियत, चिढ़ना, ऊब जाना) से वंचित नहीं रह सकते। यह तो, सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' को ही कंटाले जैसी चीज़ का अनुभव नहीं करना होता! अब यह कंटाला जिसे आता है, उसे उसको समभाव से सहन कर लेना होता है, लेकिन वैसा नहीं करके कंटाले को दूर करने के उपाय किए जाते हैं। अरे! सिनेमा, नाटक या उससे भी नीचे लुढ़क जाएँ वैसे उपाय किए जाते हैं, लेकिन हकीकत में कंटाला दूर नहीं होता है, मात्र थोड़े समय के लिए उसे आगे धकेल देते हैं, वह फिर वापस दुगुने ज़ोर से घेर लेता है। क्योंकि वह उदयकर्म कहीं छोड़ेगा नहीं, उसे पूरा भोगे बिना चारा ही नहीं है। - राग-द्वेष की सामान्य समझ और वीतरागों की यथार्थ समझ में छाछ और दूध जितना फर्क है। 'मैं चंदूलाल हूँ' वही राग है। जहाँ खुद नहीं