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वे तो स्थूल क्रियाकांड हैं, लेकिन स्थूल क्रिया करते समय आपका ध्यान कहाँ बरतता है, वह नोट किया जाता है। भगवान के दर्शन करते समय, भगवान की फोटो के साथ दुकानों के या बाहर रखे हुए जूतों को भी याद करे, उसे धर्मध्यान किस तरह कहा जाए? भगवान के वहाँ क्रिया नहीं देखी जाती, ध्यान किसमें बरतता है वह देखा जाता है। अभी हो रही क्रिया तो पिछले जन्म में किए गए ध्यान का रूपक है, पिछले जन्म का पुरुषार्थ सूचित करता है, जबकि आज का ध्यान, वह अगले जन्म का पुरुषार्थ है, अगले जन्म का साधन है !
अब, धर्मध्यान क्या है? आर्तध्यान और रौद्रध्यान उत्पन्न होते हैं, तब उसे पलटने के लिए जो पुरुषार्थ करना पड़ता है, वही धर्मध्यान है। इस धर्मध्यान में आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का समावेश होता है। लेकिन यह आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान खुद की समझ से किए हुए नहीं होने चाहिए, 'ज्ञानीपुरुष' द्वारा दिखाए हुए होने चाहिए।
आर्तध्यान और रौद्रध्यान को पलटें किस तरह? आर्तध्यान या रौद्रध्यान हुआ, वह मेरे ही कर्म के उदय के कारण हुआ, उसमें सामनेवाले का किंचित् मात्र भी दोष नहीं है। बल्कि, मेरे निमित्त से सामनेवाले को दुःख सहन करना पड़ा, उसका पश्चाताप करना और फिर से ऐसा नहीं करूँगा, ऐसा दृढ़ निर्णय निश्चय करना चाहिए। यह प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान है और वह शूट ऑन साइट होना चाहिए । प्रतिक्रमण केश, ऑन द मोमेन्ट हों, तभी हो चुके दोष धुलते हैं । सच्चा धर्मध्यान समझे तो वह तुरंत ही प्रवर्तन में आए ऐसा है ।
दादाश्री ने, सादा, रोज़मर्रा के व्यवहार में अक्सर उपयोगी हों, ऐसी सुंदर घटनाओं के उदाहरण देकर आर्तध्यान और रौद्रध्यान को पलटकर धर्मध्यान में कैसे रहा जाए, उसे सरल कर दिया है और वह हर एक को अपनी तरह से एडजस्ट हो ही जाए, ऐसा है ।
लेकिन खुद
जिसके सर्व कलुषित भाव निकल जाते हैं, वह भगवान पद को प्राप्त करता है। खुद को तो कलुषित भाव उत्पन्न नहीं होते, के निमित्त से सामनेवालों को भी कलुषित भाव उत्पन्न नहीं हों, सिर्फ वही
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