SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (58) (अ) सिद्धापेक्षा प्राथमिकता जैन परम्परा में यद्यपि कर्ममुक्तावस्था में सिद्ध परमेष्ठी का स्थान प्रथम आता है। सिद्ध परमेष्ठी के अष्ट कर्मों का क्षय हो चुका है। वे परम शुद्ध, बुद्ध मुक्त, शिवस्थान सिद्धि गति को प्राप्त कर चुके हैं। इसके बावजूद भी अर्हत् परमेष्ठी का स्थान प्रथम मान्य किया गया है। हालांकि जिस समय अर्हत् परमेष्ठी दीक्षा ग्रहण करते हैं, उस समय वे भी सिद्ध को नमस्कार करते हैं। अर्हत् परमेष्ठी से स्तुत्य, परमशुद्धावस्था को प्राप्त सिद्ध परमेष्ठी को प्रथम स्थान प्राप्त होना चाहिये था। जबकि उनका स्थान प्रथम न होकर द्वितीय है। अर्हत् परमेष्ठी के चार घाती कर्म ही क्षय हुए हैं, चार अघाती कर्मों से वे युक्त हैं। इतना होने पर भी अर्हत् को प्रथम स्थान प्राप्त है। ___ इस प्राथमिकता का कारण यह है कि अर्हत् प्रभु ने ही धर्म का प्रवर्तन किया है। संघ की स्थापना करी और लोककल्याण हेतु धर्मोपदेश दिया। अपनी धर्मदेशना के अन्तर्गत ही उन्होंने सिद्ध परमेष्ठी का परिचय दिया। अर्हत् ने ही अज्ञान रूपी अधंकार को ज्ञान रूपी प्रकाश से नष्ट किया। लोक में कहा भी है गुरु गोविन्द दोनों खड़े किसके लागू पाय। बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय॥ गुरु एवं गोविन्द में प्रथम नमस्कार गुरु को करने को कहा गया है। इसी प्रकार यहां भी अर्हत् परमेष्ठी को इसी अपेक्षा से प्राथमिकता दी गई है। वे ही जगत् के आसन्न उपकारी है। यद्यपि सिद्ध परमात्मा परम विशुद्ध है, किन्तु लोक कल्याण हेतु वे असमर्थ है। ज्ञान का मार्ग निर्देशन करने में अक्षम है। अतः अर्हत् को सिद्धापेक्षा प्राथमिकता दी गई है। यहाँ तक कि नमस्कार महामन्त्र में भी सर्वप्रथम उनको ही नमस्कार किया गया है। (ब) पंचकल्याणक तीर्थङ्कर के ही कल्याणक महोत्सव होते हैं, केवली के नहीं। ये पंच कल्याणक निम्न हैं1. च्यवन कल्याणक (गर्भ कल्याणक) अर्हत् जब देवविमान से च्यवित होकर माता के गर्भ में अवतरण करते हैं, 1. (अ) "पंच महाकल्याण सव्वेसिं जिणाण हवंति नियमेण।" पंचाशक (हरि.) 424. (ब) जस्स कम्ममुदएण जीवो पंच महाकल्लाणाणि पाविदूण तित्थ दुवालसंगं कुणदि तं तित्थयर नाम। धवला 13/5,101/366/7 गोम्मट सार जीवकाण्ड टीका 381/6
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy