________________ (57) था। इस प्रकार उनका अनुत्तर ज्ञान-दर्शन जन समूह में अद्भुतता को प्रकट करता था। धर्म संघ का प्रवर्तन और संघ की स्थापना व गठन अद्भुत प्रतीत होता है। अद्वितीयता अर्हत् परमेष्ठी के सदृश अन्य किसी का व्यक्तित्व उस भांति न होने से वे अद्वितीय है। सामान्य केवली भी उनके सदृश केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक होने पर भी अर्हत् परमेष्ठी कल्याणक महोत्सवों, अतिशय, वचनातिशय आदि अनेक अनुष्ठानों में अद्वितीय है। रूप, गुण, सम्पदा, संघीयव्यवस्था, धैर्यता, गंभीर्यता-निर्मलता, तेजस्विता आदि सर्व में इस जगत् में उनका दूसरा कोई सानी नहीं है। एकमात्र अर्हत् परमेष्ठी ही इस अद्वितीयता के स्वामी है। त्रिकालवर्ती, तीनलोक में, सर्वत्र अर्हत् परमेष्ठी के सदृश अन्य कोई नहीं है। श्रेष्ठता उपरोक्त सर्व गुण सम्पन्न होने से अर्हत् परमेष्ठी श्रेष्ठ तत्त्वों में से एक है। उनकी श्रेष्ठता का ज्ञापन करने वाला सूत्र है 'शक्रस्तव।' इस शक्रस्तव (नमुत्थुणं) के द्वारा शक्रेन्द्र अर्हत् परमेष्ठी की स्तुति करते हुए उनकी उच्चतम श्रेष्ठता को सूचित करता है। वे श्रेष्ठ क्यों है? तो उल्लेख है कि वे धर्म की आदि (प्रारम्भ) करते हैं, वे स्वयं ही बोध को प्राप्त हुए हैं, पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंह के सदृश, पुंडरीक श्वेत कमल से श्रेष्ठ हस्तियों में गंधहस्ति के समान श्रेष्ठ, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक के हितकर, लोक के प्रदीप, लक में प्रद्योतकर, अभयद, चक्षुद, धर्मद, धर्मदेशना देने वाले, धर्म के नायक, धर्म के सारथि, धर्मरूपी चातुरंत सेना के चक्रवर्ति, अप्रतिहत ज्ञान दर्शन के धारक, छद्मस्थावस्था वियुक्त, ऐसे अर्हत् परमेष्ठी स्वयं तिर चुके अन्यों के तारक, स्वयं विजित अन्य को जिताने वाले, स्वयं बुद्ध एवं जगत् को बोधिप्रदाता, स्वयं मुक्त एवं जगत् के मोचक है। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-अचल, अरूह, अनंत, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरागमन स्थान को प्राप्त है। इस प्रकार शक्रस्तव सूत्र अर्हत् परमेष्ठी की पुरुष श्रेष्ठता (आत्मा और मनुष्य), लोक एवं धर्म में ज्ञान प्रकाशन में सूर्य की भांति श्रेष्ठता, स्वयं के गुणों को अन्यों में आरोपित करने की क्षमता में श्रेष्ठ औदार्य को प्रदर्शित करता है। 1. भगवती सूत्र 1.1