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________________ (295) प्रश्न है कि आगम-ग्रंथों में पंच महाव्रतों का उल्लेख किया है, वहाँ छठा रात्रिभोजन का व्रत के रूप उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, उसका क्या कारण है? उत्तराध्ययन सूत्र के पार्खापत्य केशी श्रमण और गणधर गौतम के संवाद में पार्श्वनाथ भगवान का चातुर्याम वाला धर्म तथा महावीर भगवान का पांच शिक्षा वाला धर्म कहा गया है। आचारांग सूत्र, प्रश्रव्याकरण के संवरद्वार में भी पाँच महाव्रत का उल्लेख है। इन पांच महाव्रतों के साथ रात्रिभोजनविरमण का उल्लेख है। इससे यही फलित होता है कि रात्रिभोजन विरमण को याम, शिक्षा और व्रत के रूप में बाद में ग्रहण किया गया हो। इसका समाधान आचार्य जिनदासगणि महत्तर करते हैं कि "प्रथम और चरम" तीर्थंकर के साधु ऋजुप्राज्ञ होने के कारण रात्रि भोजन को सरलता से त्याग देते थे। आचार्य हरिभद्र ने ऋजुजड़ एवं वक्रजड़ साधुओं की अपेक्षा से इसे मूलगुण मान्य किया है। जैन परंपरा में तो रात्रिभोजन का निषेध किया ही है, किन्तु वैदिक परंपरा में भी इसे अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। मार्कण्डेय ऋषि ने रात्रिभोजन को मांसाहार के समान माना है। महाभारत के शांतिपर्व में भी इसे वर्जनीय कहा गया है। योगशास्त्र में कथन है कि जो रात्रिभोजन करता है वह निकृष्ट योनि में जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार साधु को पंच महाव्रत के साथ रात्रि भोजन विरमण व्रत का पालन भी अनिवार्य रूप से करना होता है। रात्रि भोजन धार्मिक दृष्टि से भी त्याज्य है ही किन्तु वैज्ञानिक व स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिप्रद है। बौद्ध परंपरा में दस भिक्षु शील मान्य किये गये हैं। उस दस शीलों में से छठी शील है विकालभोजन वर्जन। यह विकाल भोजन वर्जन रात्रि में भोजन परित्याग रूपी छठे व्रत के सन्निकट है। इस प्रकार ब्राह्मण एवं श्रमण दोनों ही परम्परा में रात्रि भोजन करना हेय-त्याज्य माना गया है। 1. उत्तराध्ययन 23-12 2. आचा. 2.15 3. प्रश्न. संवर द्वार 4. दश. जिनदासचूणि पृ. 153 5. दश. हारिभद्रीया टीका. पृ 150 6. महाभारत शांतिपर्व 7. वही 8. योगशास्त्र 3.67 8. विनयपिटक महावग्ग 1.56
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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