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________________ (280) सत्य महाव्रत की भावनाएँ गृहस्थ साधक आंशिक रूप से ही सत्य की प्रतिपालना कर पाता है, उसे स्वीकार करने पर भी। उसका सत्य अणुव्रत होता है। जबकि साधु सत्य को पूर्ण रूप से स्वीकार करता है, इसलिए उसका सत्य व्रत नहीं अपुित महाव्रत होता है। क्रोध, लोभ हास्य, भय, प्रमाद आदि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के अस्तित्व में रहने पर भी मन, वचन और काया से तथा कृत, कारित और अनुमोदना से कभी भी झूठ न बोलकर हर क्षण सावधानीपूर्वक, हितकारी सार्थक और प्रियवचन बोलना सत्य महाव्रत है। उनको निरर्थक और अहितकारी बोला गया सत्य वचन भी त्याज्य है। इसी तरह सत्य महाव्रती को असभ्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए। इसी प्रकार यह भोजन बहुत स्वादिष्ट है, अच्छा है, बहुत अच्छी तरह पकाया हुआ है, सुन्दर है, आकर्षक है, ऐसा सावधवचन भी उसे नहीं बोलना चाहिए। मैं यह कार्य आज अवश्य ही कर लूंगा। इस प्रकार निश्चयात्मक भाषा साधु द्वारा प्रयुक्त नहीं होनी चाहिए। सावध भाषा में असत्य होने की गुंजाइश रहती है। इसीलिए साधु को सदैव हित, मित, प्रिय वचन बोलने का अभ्यासी होना चाहिए। सत्य महाव्रत की सुदृढ़ता के लिए भी पाँच भावनाओं का प्रतिपादन किया गया है। इन पाँच भावनाओं के चिन्तन-मनन से संसार परिमित होता है। भावनाओं के निदिध्यासन से व्रतों में स्थिरता आती है। अतः भावनाओं का आगम साहित्य में विस्तार से विश्लेषण किया गयाहै। आचाराङ्ग समवायांग और प्रश्नव्याकरण में भावनाएँ निरूपित है यहाँ प्रश्नव्याकरण में उल्लिखित भावनाओं के आधार से विश्लेषण करते हैं 1. अनुचिन्तय समिति भावना अनुचिन्त्य अथवा अनुविचिन्त्य से तात्पर्य है सत्य के विभिन्न पहलुओं पर पुनः पुनः चिन्तन कर बोलना। सत्य के महत्त्व को समझकर साधु उसके बाधक 1. उत्तराध्ययन 25.24, 19,27 2. उत्तरा. 21.14 3. वही 1-24-36 4. वही 31-17 5. ततस्थैर्यार्थ भावना पंच पंच तत्त्वार्थ 7.3 6. आचारांग 2 श्रुत. 15 7. समवाय 25 वां समवाय 8. प्रश्न संवरद्वार 7 अध्य 9. प्रश्नव्याकरण संवर द्वार 7
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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