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________________ (279) 2. असद्भाव उद्भावना-जो नहीं है, उसके लिए कहना कि वह है। जैसेआत्मा को श्यामक, तंदुल के समान कहना। 3. अर्थान्तर-एक वस्तु को अन्य बताना अर्थात् वस्तु है कुछ और उसे कुछ और बताना। 4. गर्दा-हिंसाकारी, पापकारी और अप्रिय वचन बोलना। जैसे काणे को काणा कहना, मारो, काटो आदि कहना। इस प्रकार के वचन बोलना जिससे सुनने वाले को पीड़ा हो। ___ इस प्रकार उपर्युक्त चारों प्रकार का असत्य संभाषण साधु के लिए सर्वथा त्याज्य एवं वर्जनीय कहा गया है। दशवैकालिक सूत्र में साधु के लिए प्रयोज्य भाषा का वर्णन विस्तृत रूप से किया गया है। सप्तम सुवाक्य शुद्धि नामक अध्ययन इस विषय पर पूर्णतः प्रकाश डालता है। जैनागमों में चार प्रकार की भाषा वर्णित है-1. सत्य 2. असत्य 3. मिश्र और 4. व्यावहारिका इन चारों भाषाओं में से श्रमण के लिए असत्य एवं मिश्र भाषा सर्वथा त्याज्य है। यही नहीं सत्य और व्यावहारिक भाषा भी पाप और हिंसा की संभावना को लिए हुए हो, तो साधु को उसका भी व्यवहार नहीं करना चाहिए। सत्य एवं व्यावहारिक भाषा का प्रयोग साधु को निर्दोषता एवं अहिंसा के साथ करना चाहिए। दशवैकालिक सूत्र में इसका स्पष्टतः उल्लेख है कि "प्रज्ञावान् भिक्षु अवक्तव्य (न बोलने योग्य) सत्य भाषा, किंचित् सत्य एवं किंचित् असत्य ऐसी मिश्र भाषा का प्रयोग वाक्यसंयमी साधु न करे। वह निश्चयकारी, भेदकारी, मर्मकारी, अपमानजनक, कटु, कर्ण-अप्रिय, दुःखकारी भाषा न बोले। साधु पारिवारिक संबंध सूचक भाषा जैसे कि है माता-पिता, सखी, मित्र आदि का व्यवहार न करे और मनोविनोद के लिए हास्यादि में भी झूठ का प्रश्रय न ले। स्वार्थ एवं परार्थ के लिए भी साधु को न स्वयं असत्य बोलना चाहिए, और न अन्य को प्रेरित करना चाहिए। असत्य वचन सदैव अविश्वास को उत्पन्न करता है। जैन परम्परा असत्य के साथ अप्रिय सत्य, सावद्यकारी सत्य का भी निषेध करती है।" 1. पुरुषार्थसिद्धयुपाय 91 2. दशवैकालिक 7.1-4, 6-11, 14, 15
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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