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________________ (253) 10. उपसम्पदा-एक गण से दूसरे गण में ज्ञानार्जन के लिए, स्थिरीकरण अथवा दर्शन विषयक शास्त्रों को ग्रहण करने के लिए तथा विशिष्ट साधना-तप, वैयावृत्य के लिए जाना उपसम्पदा है। ये सर्व सामाचारी साधु के लिए अत्यावश्यक है। इसके अनुकूल आचरण से सद्गुणों की अभिवद्धि होती है। तदनुसार आचरण करके साधु कर्म-क्षय करके मुक्त होने का प्रयास करता है। (ख) साधु के विविध कल्प कल्प (कप्प) शब्द का अर्थ है-आचार-विचार के नियम, उमास्वातिजी के अनुसार-"जो कार्य ज्ञान, शील, तप का उपग्रह करता है, और दोषों का निग्रह करता है, वह निश्चयदृष्टि से कल्प है। कल्पसूत्र में श्रमणों के आचार को कल्प कहा गया है। जैन परम्परा के समान वैदिक परम्परा में भी कल्प शब्द आचार के नियमों के लिए व्यवहृत हुआ है। वैदिक कल्पसूत्र में गृहस्थ और त्यागी ब्राह्मणों के आचार वर्णित है।" जैन परम्परा में निम्न दस कल्पों का विधान है। 1. आचेलक्य 2. औद्देशिक 3. शय्यातर 4. राजपिण्ड 5. कृतिकर्म 6. व्रत 7. ज्येष्ठ 8. प्रतिक्रमण 9. मासकल्प 10. पर्युषणा-कल्प। 1. आचेलक्य चेल अर्थात् वस्त्र। वस्त्र का अभाव अचेल है। दिगम्बर सम्प्रदाय में अचेल का अर्थ वस्त्र रहित किया है। इससे आचेलक्य कल्प का अर्थ हुआ-मुनि को वस्त्र धारण नहीं करना चाहिये। 'अ' शब्द का अर्थ अल्प भी किया गया है। इससे आचेलक्य का अर्थ अल्पवस्त्र भी हो जाता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार मुनि को कम से कम वस्त्र धारण करना चाहिए। 1. प्रशमरति 143 2. कल्पसूत्र कल्पलता गा. 1. पृ. 2 3. आव. नि. मलय. वृत्ति 121, निशीथ भा. 5933, बृहत्कल्प. 63-64 भगवती अराधना 427 पंचाशक-१७.६-४०
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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