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________________ (243) साधु में भी प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए यह नियम है कि वे अनिवार्य रूप से आवश्यक करें। किन्तु मध्य के 22 तीर्थकरों के लिए अनिवार्यता नहीं, यदि कारण का योग होतो करना चाहिये। ये आवश्यक उभयकाल किये जाते हैं। जैनागमों में ये आवश्यक कर्म छः मान गये हैं1. सामायिक-समताभाव रखना। 2. चतुर्विंशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना। 3. वंदन-गुरुजनों को वंदना, उनका गुणगान। 4. प्रतिक्रमण-सदाचार में लगे हुए दोषों का प्रायश्चित करना। 5. कायोत्सर्ग-चित्त को एकाग्र करके शरीर पर से ममत्व हटाना। 6. प्रत्याख्यान-आहार आदि का त्याग करना। 1. सामायिक (सावद्य योग विरति)___षड़ावश्यक में सामायिक का प्रथम स्थान है। यह जैन आचार का ही नहीं चौदह पूर्वो का सार है। यह समत्व वृत्ति की उत्कृष्ट साधना है। समत्व साधना के दो पक्ष हैं-1. बाह्य रूप से यह सावध (पापकारी) प्रवृत्तियों का त्याग है तथा 2. आन्तरिक रूप में सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभअलाभ, निंदा-प्रशंसा में समभाव रखना है। वास्तव में समता का विकास जीवन की पहली आवश्यकता है। जब आत्मा की परिणति विषम होती है, तब असत् प्रवृत्तियाँ होती है और जब आत्मा की प्रवृत्ति सम होती है, तब असत् प्रवृत्तियाँ स्वतः निरुद्ध हो जाती है। इस सम परिणति का नाम ही सामायिक है। सामायिक में साधक की चित्तवृत्ति एकदम शांत रहती है, इसलिए वह नवीन कर्मों का बंध नहीं करता। आत्मस्वरूप में स्थित रहने के कारण जो कर्म शेष रहे हुए हैं, उनकी वह निर्जरा कर लेता हैं। इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने लिखा है कि सामयिक की विशुद्ध साधना से जीव घातिकर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्त . कर लेता है। 1. आ. नि. गा.१२४४ 3. उत्तर 29.8-13 5. नियमासार 125 7. अष्टक प्रकरण 30.1 2. आव. मलय.टीका प.८६ 4. विशेषा. भा.गा. 2796 6. उत्तरा. 19.90-91
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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