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________________ (242) 17. सड़े हुए पाट कि जिसमें जंतुओं के अंडे उत्पन्न हो गये हों, वैसी प्रयोग में ले तो। ___ 18. 'कंद' (मूल-जड़), 'खंध' (उपर का थड़), 'शाखा' बड़ी डाली, 'प्रतिशाखा' (छोटी डाली) 'त्वचा' (छाल), 'प्रवाल' (कोंपल), पत्ते, फूल, बीज, हरित, इस प्रकार 10 कच्ची वनस्पति का उपयोग करे तो। 19. एक वर्ष में दस बार नदी पार करे तो।। 20. एक वर्ष में दस बार माया स्थान सेवन करे तो। 21. सचित्त पानी से, हरी वनस्पति से या ऐसे कोई सचित्त पदार्थ से युक्त भोजनवाला आहार-पानी आदि ग्रहण करे तो। इस प्रकार ये 21 सबल दोष है। जिस प्रकार निर्बल व्यक्ति शक्ति के उपरांत भार उठाने पर मर जाता है, उसी प्रकार इन 21 प्रकार के दोषित कार्य करने से संयम रूपी धन का नाश होता है। (3) साधु : आचार विधान षडावश्यक जिस प्रकार वैदिक परंपरा में सन्ध्याकर्म है, बौद्ध पंरपरा में उपासना है, पारसियों में खोर देह अवेस्ता है, यहूदी और ईसाईयों में प्रार्थना है, इस्लाम धर्म में नमाज है, उसी प्रकार जैन धर्म में गुणों की अभिवृद्धि के लिए और दोषों की विशुद्धि के लिए कुछ क्रियाएं आवश्यक है। जैसा कि नाम है-आवश्यक, वैसा ही इससे तात्पर्य भी यही है कि "जो अवश्य करणीय है वह आवश्यक है।" आवश्यक जैन साधना का मुख्य अंग है। इसका विधान साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका सभी के लिए किया गया है। यद्यपि इसका विधान सब के लिए किया है, तथापि साधु के लिए तो यह अनिवार्य है। इस आचार का पालन अवश्यंभावी है। गृहस्थ को भी यह करना चाहिए, किन्तु अकाट्य रूप से उनके लिए विधान नहीं। मात्र बारह व्रतधारी के साथ अनिवार्यता रखी गई है। अन्य गृहस्थी चाहे तो करे। नहीं करने पर उनके लिए कोई प्रायश्चित नहीं। 1. आव. मूल्य वृत्ति प. 186, मूलाचार अधि.७ 2. आव. वृत्ति गा. 2
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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