________________ (186) देते हैं। कि आचार्य को शिष्ट में पुत्र-बुद्धि रखनी चाहिये तथा शिष्य को आचार्य में पिता बुद्धि। उत्तरासंग को कंधे पर करवा कर, पादवंदन कर, उकडू बिठा कर, हाथ जोड़कर इस प्रकार कहना चाहिए-भन्ते! मेरे आचार्य बनिए, भंते! मेरे आचार्य बनिए, भंते! मेरे आचार्य बनिए। आचार्य के प्रति शिष्य का कर्तव्य शिष्य को आचार्य के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए। अच्छा बर्ताव यह हैसमय से उठकर, जूता छोड़, उत्तरासंग को एक कंधे पर रख, दातुवन देना चाहिए, मुख (धोने को) जल देना चाहिये। आसन बिछाना चाहिये। यदि खिचड़ी कलेऊ (नाश्ते) के लिए है, तो पात्र धोकर उसे देना चाहिए। पानी देकर, पात्र लेकर बिना घसे धोकर रख देना चाहिए। आचार्य के उठ जाने पर वहाँ स्वच्छ कर देना चाहिये। आचार्य गाँव में जाना चाहे तो वस्त्र थमाना चाहिये, कमरबन्द देना चाहिए। यदि वे साथ में अनुगामी भिक्षु चाहें तो इसी प्रकार सुसज्ज होकर आचार्य का अनुचर बनना चाहिए। उनके साथ में न बहुत दूर चलना चाहिए, न बहुत समीप में चलना चाहिए। पात्र में भिक्षा को ग्रहण करना चाहिये। आचार्य के बात करते समय बीच-बीच में बात नहीं करना चाहिये। यदि आचार्य सदोष बात बोल रहे हो तो मना करना चाहिये। लौटने पर पहले आकर आसन बिछा देना चाहिये पादोदक (पैर धोने का जल) पाद-पीठ, पाद कठली (पैर घिसने का साधन) रख देना चाहिए। जो जो वस्तुएँ-व्यवस्था पहले उनके प्रति की थी, वह पुनः उनसे लेकर व्यवस्थित स्थापित कर देना चाहिए। संक्षेप में आचार्य के आहार, भिक्षाटन, स्नान तथा आवास आदि की स्वच्छता का उत्तरदायित्व शिष्य पर होता है। यहाँ तक कि यदि आचार्य को उदासी हो तो शिष्य को उसे हटाना, हटवाना चाहिये धार्मिक कथा उनसे करनी चाहिये। उनको शंका उत्पन्न हुई हो तो, उल्टी धारणा भी हो गई हो तो शिष्य को उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। 1. आचारिवत्तकथा-विनयपिटक-महावग्गा-१.२.१, चुल्लवग्ग-८.५.४ 2. वही 3. वही 4. वही