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________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी अ) छयालीस गुणसम्पन्न तीर्थंकर : प्रत्येक तीर्थंकर केवली एवं सर्वज्ञ तो होता ही है / इसके अतिरिक्त उसमें और भी गुण होते हैं वे हैं -- अनन्त चतुष्टय और अष्टमहाप्रातिहार्य ये बारह मूलगुण तथा चौंतीस अतिशय / इस प्रकार तीर्थंकर भगवान् 46 गुणों से सम्पन्न होते हैं / (आ) अनन्त चतुष्टय : तीर्थंकर देव अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख से समृद्ध होते हैं / अरहन्त भगवान् इन गुणों में ही रमण करते हैं किन्तु घातिया कर्म इन गुणों के बाधक हैं / अत एव घातिया कर्मों का विनाश होना अत्यन्त आवश्यक है कारण कि इनके नष्ट होते ही जीव में इन गुणों का सद्भाव हो जाता है / (इ) अष्टमहाप्रातिहार्य : तीर्थंकर भगवान् देवप्रदत्त अष्टमहाप्रातिहार्यों से भी सम्पन्न होते हैं / पूज्यत्व प्रकट करने वाली जो सामग्री प्रतिहारी की भांति सदैव भगवान् के साथ रहे, वह ही प्रातिहार्य है / अद्भुतता अथवा दिव्यता से युक्त होने के कारण इन्हें महाप्रतिहार्य कहते हैं / वह सामग्री आठ प्रकार की होती है, इसी से इसे अष्टमहाप्रातिहार्य कहा जाता है / ये इस प्रकार हैं 2 1- अशोक वृक्ष : तीर्थंकर भगवान् भूमण्डल को पावन करते हुए जहां धर्मोपदेश देने के लिए बैठते या खड़े होते हैं, वहां उनके शरीर से द्वादश गुणे ऊंचे अति सुन्दर अशोक वृक्ष की रचना हो जाती है जिसे देखते ही भव्य प्राणियों का शोक दूर हो जाता है / 2. सुरपुष्पवृष्टि : जिस स्थान पर तीर्थंकर का समवसरण होता है, वहां एक योजन तक देवगण विविध वर्णों वाले मनोहर सुगन्धित पुष्पों की वर्षा करते हैं | 3. दिव्यध्वनि : तीर्थंकर के श्रीमुख से सर्वभाषा में परिणत होने वाली अर्धमागधी भाषा में सर्वगुणसम्पन्न एवं योजनगामिनी दिव्यध्वनि निकलती है, जिसे सुनकर सभी प्राणी अपनी-अपनीभाषा में उसके भाव को स्पष्ट रूप से समझ लेते हैं। 1. ज्ञानदृग्वीर्यसौख्याढ्यः सोऽर्हन् धर्मोपदेशकः / पंचाध्यायी, 2.607 2. दे०-तिलोय० 4.6 15-627
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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