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________________ परमष्ठी अरहन्त परमेष्ठी संयम आदि गुणों का वर्धन करते हुए अपने आत्मकल्याण में वृद्धि करते हैं / ६-अष्टादशदोषरहित तीर्थंकर : मोहनीय,ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय और अन्तराय-इन चार घातिया कर्मों के क्षय करने के कारण तीर्थंकर अठारह दोषों से भी रहित होते हैं / मोहनीयकर्म के क्षय से मिथ्यात्व, राग, द्वेष, अविरति, कामवासना, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा ये ग्यारह दोष दूर हो जाते हैं | निद्रा दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से तथा अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से विनष्ट हो जाता है / दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय एवं वीर्यान्तराय ये पांच अन्तराय कर्म के क्षय से नष्ट हो जाते हैं / इस प्रकार अरहन्त भगवान् अठारह दोषों से रहित होते है। श्वेताम्बर जैन तीर्थंकर को कुछ भिन्न अठारह दोषों से रहित मानते है, वेदोष हैं--१.हिंसा,२-मृषावाद,३-चोरी,४-कामक्रीड़ा,५-हास्य,६-रति, ७-अरति, ८-शोक,६-भय, १०-क्रोध, ११-मान, १२-माया, १३-लोभ, १४-मद, १५-मत्सर, १६-अज्ञान, १७-निद्रा और १८-प्रेम / 2 एक दूसरे स्थान पर दिगम्बर परम्परा में उन्हें निम्न अठारह दोषों से रहित माना गया हैं वे हैं -- (1) क्षुधा, (2) तृषा, (3) भय, (4) क्रोध, (5) राग, (6) मोह, (7) चिन्ता, (8) जरा, (6) रोग, (10) मृत्यु, (11) स्वेद, (12) खेद, (13) मद, (14) रति, (15) विस्मय, (१६)निद्रा, (17) जन्मऔर (18) उद्वेग (अरति)।' इन दोनों परम्पराओं में तीर्थंकर को जिन दोषों से रहित माना गया है उनमें मूलभूत अन्तर यही है कि जहां दिगम्बर परम्परा तीर्थंकर में क्षुधा और तृषा काअभाव मानती है वहां श्वेताम्बर परम्परा ऐसा नहीं मानती है कारण कि श्वेताम्बर परम्परा में केवली का कवलाहार (भोजन-ग्रहण) स्वीकार किया गया है, दिगम्बर परम्परा जिसे स्वीकार नहीं करती / अन्य बातों की दृष्टि से दोनों ही परम्पराओं में लगभग समानता है / जैसे - 1. अन्तराया दान-लाभ, वीर्य-भोगोपभोगाः / हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्साशोक एव च।। कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा चाविरतिस्तथा। रागो द्वेषश्च नो दोषस्तेषामष्टादशाऽप्यमी / / अभिधान चिन्तामणि, 1.72-73 2. हिंसाऽऽइतिगं कीला, हासाऽऽइपंचगं च चउक्साया। मयमच्छर अन्नाणा,निद्या पिम्मं इअवदोसा ।।अभिधानराजेन्द्रकोष,भाग-४, पृ०२२४८ 3 छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहोचिंता जरा रुजामिच्चू / सेदं खेद मदो रइ विम्हियणिद्दा जणुलेगो। नियम०, गा०६ 4. भुङ्क्ते न केवली न स्त्री मोक्षमेति दिगम्बरः / प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरैः सह / / जिनदत्तसूरि, उद्धृत, भारतीय दर्शन, (बलदेव). पृ०६३
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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