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________________ साधु परमेष्ठी 201 करने की अनुमति प्रदान करें।' परन्तु ऐसा भी हो सकता है कि माता-पिताआदिअनुरागवश या किसी अन्य कारण से अनुमतिन भी प्रदान करें, तब क्या किया जाए? इसके प्रत्युत्तर में आचार्य हरिभद्र सूरि कहते हैं कि दीक्षार्थी अपने सम्बन्धीजनों को दःस्वप्न (गधा, ऊंट,भैंस आदि पर बैठना)आदि बतलाए और अपनी प्रकृति के विपरीत चिह्नों का दिखावा करे। यदि माता-पिता विपरीत चिह्नों को न जाने तो ज्योतिषियों के द्वारा ऐसा कहलावे। ऐसा आचरण करना माता-पिता को गोखा देना नहीं कहा जा सकता क्योंकि धर्म के साधन में जो क्रिया की जाती है वह माया नहीं है तथा यह जो कार्य किया जाता है। दोनों के हित के लिए ही होता है / अतः इस प्रकार प्रयास किए जाने पर वे सहमत हो जाएं तो अच्छा है, नहीं तो दीक्षार्थी आत्म कल्याण के लिए दीक्षा ले लेवे। (ब) परिवार एवं सांसारिक विषय-भोगों का त्याग : माता-पिता व अन्य सम्बन्धियों की अनुमति ले लेने के बाद साधक को माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी एवं पुत्र आदि सभी कुटुम्बीजनों तथा संसार के अन्य सभी पदार्थों को महामोह उत्पन्न करने वाले समझकर उसी प्रकार त्याग देना चाहिए जिस प्रकार हाथी बन्धन को तोड़कर वन में चला जाता हैं, सांप अपनी केंचुली का त्याग कर देता है, रोहित मत्स्य अपने जाल का भेदन करके चला जाता है, धूलि कपड़े को झटककर फैंक दी जाती है तथा जिस प्रकार क्रौंच और हंस पक्षी जालों को काटकर आकाश में स्वतन्त्र उड़ जाते हैं। इस प्रकार संसारियों को ममत्व एवं विषय भोगों में आसक्ति का पूर्णतः 1. मएसमणस्सभगवओ महावीरस्सअंतिएंधम्मे निसंते से विय मेधम्मेइच्छियपडिच्छिय अभिरुइए तं इच्छाणि णं अम्मयाओ! तुमहिं अब्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवाओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ आणगारियं पव्वइत्तए।। ज्ञाता० 1.26 2. दुःस्वप्नांदिकथनमिति / धर्मबिन्दु, 4.251 3. तथा-विपर्यलिङ्गसेवेति / वही, 4.252 4. दैवज्ञैस्तथा तथा निवेदनमिति / वही, 4.253 5. न धर्म मायेति / वही, 4.254 उभयहितमेतदिति / वही, 4.255 7. जहित्तु संगं च महाकिलेसं महन्तमोहं कसिणं भयावहं। उ०२१.११ नागोव्व बन्धणं छित्ता अप्पणो वसहिं वए। वही, 14.48 8. जहा य भोई! तणुयं भुयंगो निम्मोयणिं हिच्च पलेइ मुत्तो। एमेय जाया पयहन्ति भोए---- | वही, 14.34 6. छिन्दित्तु जालं अबलं व रोहिया मच्छा जहा कामगुणे पहाय / वही, 14.35 10. इढिं वित्तं च मित्ते य पुत्त-दारं च नायओ। रेणुयं व पडे लग्गं निद्धणित्ताण निग्गओ। वही, 16.87 11. जहेव कुंचा समइक्कमन्ता तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा। __ पलेन्ति पुत्ता य पई य मज्झं-----|वही, 14.36
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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