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________________ 200 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (क) दीक्षा : गृहस्थ आश्रम से पलायन नहीं : साधु-धर्म में दीक्षित होना क्या गृहस्थ आश्रम की कठिनाइयों से घबरा कर पलायन करना नहीं? नहीं, कारण कि एक में भय की भावना निहित है तो दूसरे में लक्ष्य का मुख आत्मविकास की ओर होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में आता भी है कि जब राजा नमि की दीक्षा के समय इन्द्र उनसे यह कहता है कि गृहस्थाश्रम को त्याग कर सन्यासाश्रम की प्रार्थना करने की अपेक्षा यह उत्तम है कि आप गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए पौषधव्रत में अनुरत रहे तो राजा नमि इसका प्रत्युत्तर देते हैं कि 'जो अज्ञानी साधक महीने-महीने के तप करता है और पारणा में कुशाग्रप्रमाण आहार करता है वह भी सर्वविरतिरूप सुविख्यात धम्र अर्थात् सन्यासाश्रम की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट है कि दीक्षा लेना गृहस्थ आश्रम के दुःखों से पलायन नहीं है। (ख) साधु का एकमात्र ध्येय मुक्तिलाभ : आत्मा को दुःखों से मुक्त कर अनन्त और यथार्थ सुख की प्राप्ति करना ही साधु का ध्येय है। मुनि इहलोक की भौतिक समृद्धि के लिए, परलोक की समृद्धि के लिए या प्रशंसित होने के लिए आचार का पालन नहीं करते,अपितु केवल आत्मशुद्धि हेतु ही वे आचार का पालन करते हैं। प्रव्रज्या एकमात्र आत्मा के लिए ही है। अतः श्रमणत्व धारण का मूल उद्देश्य है-आत्मिक विकास, इसी को मोक्ष भी कहा जाता है। (ग) दीक्षा ग्रहण : जो व्यक्ति साधुपद की पूर्वकथित योग्यताएं रखता है एवं दीक्षा लेने का इच्छुक है, उसके लिए निम्न बातों पर भी ध्यान देना समुचित है(अ) माता-पिता की अनुमति : दीक्षार्थी को दीक्षा लेने से पूर्व माता-पिता अथवा सम्बन्धी-जनों से आज्ञा लेनी चाहिए। राजा श्रेणिक के पुत्र मेध कुमार जब मुनि बनने लगते हैं तब अपने माता-पिता को प्रव्रज्या के महत्त्व को समझाते हुए बार-बार कहते हैं कि मैंने भगवान् महावीर के धर्मका प्रत्यक्ष श्रवण किया है, वह मुझे प्रतीच्छित है तथा अभिरुचित है। इसलिए हे माता-पिता! मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आप मुझे श्रमण भगवान् महावीर के पास घर छोड़कर अनगार अवस्थाधारण 1. दे० उ०,६.४२ 2. मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं / / वही, 6.44 3. दे०-दश० 6.4.7 4. अत्तत्ताए परिव्वए। सूयगड़ो-१, सू० 3.46 5. गुरुजनाद्यनुज्ञेति। धर्मबिन्दु, 4.246, तथा दे०-उ०१४.६-७; 16. 10.11, 24,85,86:20.34:21.10
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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