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________________ 76 . जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी को प्राप्त हो जाता है। 7. त्रिलोकवन्दनीय सिद्ध : भगवतीआराधना में सिद्ध भगवान् का गुणगान करते हुए कहा गया है कि जिन्होंने रागद्वेष को दूर कर दिया है, और जो भय, मद, उत्कण्ठा और कर्मरूप धूलिपटल से रहित हैं, वे सिद्ध तीनों लोकों के द्वारा वन्दनीय हैं। 8. परमसुखीसिद्ध : संसार में जितना भी शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख है, उसे सिद्ध परमेष्ठी पूर्णरूप से नष्ट कर चुके होते हैं क्योंकि उन्हें इस तरह की कोई भी बाधा नहीं होती, वे समस्त बाधाओं को जानते हैं तथाअध्यवसान-विकल्पवासना से रहित होते हैं, इसी से वे परमसुखी हैं जावं तु किंचि लोए सारीरं माणसं च सुहदुक्खं / तं सव्वं णिज्जिण्णं असेसदो तस्स सिद्धस्स।। जंणत्थि सव्वबाधाओ तस्स सव्वं च जाणइ जदो से। जं च गदज्झवसाणो परमसुही तेण सो सिद्धो।।। आचार्य शिवार्य आगे लिखते हुए कहते हैं कि 'सिद्धों का शब्द आदि विषयों से कोई प्रयोजन नहीं होता कारण कि उन्हें भूख, प्यास आदि की बाधा नहीं होती तथा विषयों के उपभोग के कारण रूप रागादि भी नहीं होते। इसी कारण सब प्रकार की क्रियाओं से रहित सिद्धों में बोलना, चलना, फिरना तथा विचारना आदि भी नहीं होता। 6. परमविशुद्ध आत्माः सिद्ध परमात्मा : आचारांगसूत्र में परमविशुद्ध आत्मा का जो स्वरूप बतलाया गया है, वही सिद्ध परमात्मा का स्वरूप है। यहां बतलाया गया है कि-परम विशुद्ध आत्मा-परमात्मा (=सिद्ध) का वर्णन करने में कोई भी शब्द समर्थ नही हैं। परमात्मा तर्क-गम्य भी नहीं है। उसे मति के द्वारा भी ग्रहण नहीं किया जा 1. दीहकालमयं जंतू उसिदो अट्ठकम्महिं। सिद्ध धत्ते णिधत्ते य सिद्धत्तमुववच्छइ / / मूला०७.५०७ 2. मदरागदोसमोहो विभओ विमओ णिरुस्सओ विरओ। बुधजणपरिगीदगुणो णमंसणिज्जो तिलोगस्स।। भग०आo,गा० 2137 3 वही, 2136-40 4. विसएहिं से ण कज्जं जं णत्थि छुदादियाओ बाधाओ। रागादिया य उवभोगहेदुगा णत्थि जं तस्स / / एदेण चेव अणिदो भासणचंकमणचिंतणदीणं। चेट्ठाणं सिद्धम्मि अभावो हदसव्वकरणम्मि।। वही, गा० 2148-46
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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