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________________ ( 180) पा पंथे मुक्तिरमणी, वरा रंगे राजवी। . तस्य कई नर नार हाथे, पूजते प्रभुकी मया ॥द०॥१॥ प्रेम मक्ते करी पूजा, द्रौपदी साँची सती / दर्य कर शुद्ध हर्ष मन से, देव सुख पाई गया॥द०॥३॥ घेटीमंडन शान्ति सुंदर, एक शत अठ वंदना / तुम दर्श से कई जीव सीझे,ज्ञानाभ्यासी हो गया।।द०॥४॥ आश पूरण दास किंकर, राजेन्द्र दिल दया वहे / यतीन्द्रवाचक वंदते,गुण रूप से सुखिया थया॥द०॥५॥ गारीयाधारमंडन-श्रीशान्तिजिन-स्तवनम् / देशी-महोब्बत न कीजे जमाना बु०, प्रभुजी के नाम बिन, जियना बुरा है। विषयों के संग में, लिपटाना बुरा है ॥टेर // आरजदेश उत्तम कुल पाया। निशदिन फोगट, गुमाना बुरा है // प्रभु० // 1 // मात पिता सुत भाई भतीजा। बिन मतलब से बसाना बुरा है // प्रभु० // 2 // भव अटवी नटवी ज्यु नाच्यो / राच्यो रंग सहाना बुरा है ॥प्रमु०॥३॥ संसार माया बादल छाँया। काँचसी कायापे, घिसाना बुरा है // प्रभु०॥४॥
SR No.023536
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1935
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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