________________ सेठियाजनान्धमाला - पाठ 29 प्रकीर्णक पद्य. शील (मत्तगयन्द छंद). ताहि न वाघ भुजंगम को भय, पानि न वोरै न पायक जालै। ताके समीप रहें सुर किन्नर, सो शुभ रीति करै अघ टालै // तासु विवेक बढे घट अंतर, सो सुर के शिव के सुख माले / ताकि सुकीरति होय तिहूँ जग,जोनर शील अखण्डित पाला॥१॥ - लोभ. _(मनहरण छंद.) पूरन प्रताप-रवि, रोकवे को धाराधर, सुकृति-समुद्र सोखवे को कुंभनंद है / कोप-दव-पावक जनन को अरणि दारु, "मोह-विष-भूरह को, महा दृढ़ कंद है / / परम विवेक निशि-मणि पासवे को राहु, कीरति लता कलाप दलन गयंद है। कलह को केलि-भौन प्रापदा नदी को सिंधु, ऐसो लोभ याहू को विपाक दुख द्वंद है // 2 // सत्य. (घनाक्षरी छंद) पावक ते जल होय, वारिधते थल होय, शस्त्रते कमल होय, ग्राम होय वनते /