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उपदेशमालाविशेषवृत्तौ
॥ ४४१ ॥
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जेण चिरं छुहिएण वि न भक्खिया भक्खिणिज्जा वि ।। ५६ ।। अह पारदारएहिं पर्यंपियं देव ! मालिओ एको । दुक्करगारी जेण चत्ता सा निसि पत्ता ॥ ५७ ॥ पाणेण जंपियं होउ ताव चोरेहिं दुक्करं विहियं । पइरिके वि विमुक्का ससुवन्ना जेहिं सा तइया ॥ ५८ ॥ एवं वुत्तो चोरोत्ति, निच्छिउं सोऽभएण मायंगो । गिन्हाविऊण पुट्ठो, कहमारामो विलुत्तो त्ति ॥ ५९ ॥ तेणं पर्यपि नाह!, पवरविज्जाबलेण नियएण । कहिओ य वइयरो सेणियस्स एसो समग्गो वि ॥ ६० ॥ रन्ना वि संसियं देइ, कवि जइ मज्झ निययविज्जाओ । सो पाणो तो मुंह, इहरा से हरह जीयंति ॥ ६१ ॥ पडिवन्नं पाणेणं, विज्जादाणं पि अह महीनाहो। सीहासणे निसन्नो, विज्जाओ पढिउमाढत्तो ।। ६२ ।। पुणरुत्तप्पयत्तक्कित्तिया वि, रन्नो न ठंति जा विज्जा | सो ता तज्जइ रुट्ठो, न रे ! तुमं देसि सम्मति ॥ ६३ ॥ अभएण भणियमिह देव !, नत्थि एयस्स थेवमवि दोसो । ' विणयगहियाउ विज्जाउ, ठंति फलदा य जायंति' ॥ ६४ ॥ यत उक्तम् - विज्जा वि होइ फलदा, गहिया पुरिसेण विणयमंतेण । सुकुलपसूया कुलबालियव्व पवरं पई पत्ता ॥ ६५ ॥ तो पाणमिमं सीहासणंमि ठविऊण सयअवि महीए । होऊण विजयसारं, पढसु जहा | ति इहिप || ६६ ॥ तह चैव कथं रन्ना संकंताओ लहुं च विज्जाओ । सक्कारिऊण मुक्को, पाणो अच्चंतपणइव्व ॥ ६७ ॥ इय जई इहलोइय, तुच्छकज्ज विज्जा वि भावसारेण । पाविस्सइ हीणस्स वि, गुरुणो अच्चतविणएण ।। ६८ ।। ता कह सम त्थमणवंछियत्थदाणक्खमाए विज्जाए । जिणभणियाए दाईण, विणयविमुहो बुहो होज्जा ? ॥ ६९ ॥ अन्नं च - पत्थरकया वि देवा, सन्निज्झपरा हवंति विणयाओ। जइ ता का गणणा अन्नवत्थुसिद्धीए धीराणं ॥ ७० ॥ तम्हा कल्लाणपरंपराए संपाडणेक्कपडुमि । वियमिनिमेपि हु, बुहेण न पमाइयव्वंति ॥ ७१ ॥ इति विनये श्रेणिककथा || २६६ ॥ एवमपि स्थिते यो दुर्बुद्धिगुरुं निहूनुवीत तद्दोषमभिधित्सुराह -
विज्जाए कामवसंतिआए दगसुअरो सिरिं पत्तो । पडिओ मुसं वयंतो, सुभनिण्डवणा इय अपत्था ॥ २६७ ॥
श्रुतदायकेषु विनयोपरि
श्रेणिक
कथा ।
॥ ४४१ ।।