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उपदेशमालाविशेषवृत्तौ
पुरणर्षिसन्धिः ।
॥३०॥16
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मणि मडफरफारसिंगारु चुबतउ मउडि महि नमिवि नाहु खामइ सुरेसरु, रे चमरा! मुकु तुहुँ जाहि दिन्नु मइ अभउ नीसरु। अज जाउ जाणिज तुहं जयपहुपायपसाई, सामिपायपूयापवणु भुंजसु भोगसुहाई
॥२९॥ सक्कु सामिहि पायपणमेवि सोहम्मि कप्पि गउ, चमरु चमरचंचाभिहाणइ, निवसंतउ ठावि सहिं अच्छराइ परिवारु आणइ । परमपमोय पसन्नु पुरि सुसुमारि निदंभु, पुरउ पयट्टइ सामियहि नवरसनट्टारंभु सारिधारियविणअद्दीणसुपुलाविउ वेणु पुणु गुमुगुमेइ सद्दालु मद्दलु, उफ्फालिउ ताललउ धरिउ पाडु पाडहिइ पव्वलु । नच्चइ नचणि सवइ अंगहारु जो सारु, सुत्तहारु सयमेव ठिउ चमरु विचारइ चारु
॥३१॥ चमरु पत्तउ चमरचंचाहिं अच्चेवि नच्चेवि तहिं पुष्फवुट्ठि तुट्ठउ विसज्जि वि, परमप्पयपहुपुरउत्तरसद्दुसंगेउ सजिवि । अवसरि वीरजिणेसरु वि काउसग्गु पारेइ, जिव जंगमु वरकप्पतरु महिमंडलि विहरेइ
॥३२॥ एवं पूरणस्य सर्वज्ञशासनबाह्यत्वाददयालोर्बह्वपि तपस्तदनुरूपफलाभावादफलं जातम् । सर्वज्ञशासनस्थस्य कदाचित्कारणेनाऽपवादे वर्तमानस्यापि स्वशक्त्या वर्तमानस्य सफलमेवेत्याह
कारणनीयावासी, सुट्ट्यरं उज्जमेण जइयव्वं । जह ते संगमथेरा, सपाडिहेरा तया आसी ॥ ११०॥ एगंतनियावासी, घरसरणाईसु जइ ममत्तं पि । कह न पडिहंति कलिकलुसरोसदोसाण आवाए ॥ ११ ॥ अविकत्तिऊण जीवे, कत्तो घरसरणगुत्तिसंठप्पं । अवि कत्तिा य तं तह, पडिआ अस्संजयाण पहे ॥ ११२॥ थोवोऽवि गिहिपसंगो, जइणो सुद्धस्स पंकमावहई । जह सो वारत्तरिसी, हसियो पज्जोयनरवइणा ॥११३॥
गाहा स्पष्टा । नवरं नीयावासो-नित्यवासस्तस्मिन् । प्रातिहार्यगुणावर्जितदेवतासम्पाद्यातिशयवत्ता ॥ संगमस्थविराख्यानकं च 'वुड्ढावासे वी'त्यत्रोक्तमेव ॥ ११० ॥ विपर्यये दोषमाह-" एगंत" गाहा । एकान्तेन निष्कारणं नित्यवासिनोऽवसन्नपार्श्वस्था
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॥३०२॥