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पुरणर्षि
उपदेशमालाविशेषवृत्तौ
सन्धिः ।
॥ २९८॥
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पत्तु पवित्तमु जगुत्तमु सत्तमु दव्वु पुणु, अइविसुद्धसद्धाधणु दायगु सव्वगुणु ।
विहि-अलोहकयसोहु साहुपूयणपवणु, इअ चउक्कमेलावओ पुन्निहि होइ नणु ॥ ७३॥ इह-परलोयनिरीहु नाहु चिंतइ सो संजमु, रहगारु वि उग्घडियपुन्नु मन्नइ निजु उत्तमु ।
बहुमन्नइ मुणिदाणु हरिणु पासद्विउ तुटुउ, कटरे एरिसु तिहि वि चित्तु मइ कहवि न दिएउ ।।७४ ॥ ___एत्थंतरंमि दुव्वार-वायलहरीपणोल्लिओ पडिओ। तिन्हंपि ताणमुवरि, अद्धच्छिन्नो तरु एगो ॥ ७५ ॥ मरिऊण तेण तिन्नि वि, ते उप्पन्ना पसन्नकयपुन्ना। पंचमकप्पे निप्पडिमरिद्धिणो वरविमाणमि ॥ ७६ ।। यतः-“कर्तुः स्वयं कारयितुः परेण, शुद्धेन चित्तेन तथाऽनुमन्तुः। साहाय्यक श्च शुभाशुभेषु, तुल्यं फलं तत्त्वविदो वदन्ति” ॥ ७७ ॥ इति बलदेवर्षिकथा ।। दयाप्रधानशासन एव चात्महितमाचरन्नपि फलभाग्भवति नान्यथेत्याह
जं तं कयं पुरा पूरणेण अइदुकरं चिरं कालं। जइ तं दयावरो इह, करिंतु तो सफलयं इंतं ॥ १०९॥ ___“जं तं कयं" गाहा । यत्तत्कृतं तप इति शेषः ॥ इहेति-दयाप्रधानजिनशासने । शेष सुगमम् । पूरणकथा चेयम्अत्थि एत्थु जि भरहवासंमि वेभेलउ नामिपुरु वाविकूधदेउलसमन्निड, तहिं निवसइ सव्वगुणु पूरणु त्ति उत्तम कुडुबिउ । जसु दीसहिं घरि उक्कुरुडकंचणधणधन्नाह, जे पुण हरि-करह-प्पमुहसंख कु जाणइ ताह
॥१॥ अवरवासरि सो महासत्तु सुत्तुट्ठिउ सुठुमइ रयणिपहरि पच्चूसि चिंतइ, संसारुव्विग्गमणु रम्मधम्मजागरिय जग्गइ । जाव जाइ अज्जवि न महु इय सामिद्धी अकालि, ता पडिवजउ किंपि वउ करउ परत्तह पालि
॥२॥ चित्ति चिंतिउ तेण जाएउ ता उमाउ सहसकरु तिमिरलहरि दूरि पलाणिय, कमलायर महमहिय चक्कवाइ चक्केहिं माणिय । | सउ मेलिवि सो सजणं नियघरि सम्माणेइ, बइसारि वि निय बइसणइ जेट्ठपुत्तु पभणेइ
॥३॥
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