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उपदेशमालाविशेषवृत्तौ
॥ २७४ ॥
पामि ॥ ३७ ॥ तं नर जं पाणाओ, पाडइ पुहईए भणइ रे मज्झ । पुत्तो उत्तमजाई, 'विट्टालसि पाव ! एयाओ ॥ ३८ ॥ मह पुत्तो तं जइ नाम, अपिओ भारियाए पावाए। ता किं खमामि एयं कुरु पाणं पविस खड्डाए ॥ ३९ ॥ सयलवहूपियराणं, संखुद्धविलक्खदुक्खियमणाणं । किं कायव्वविमूढाण कड्रिढउं तेण सो नीओ ॥ १४० ॥ नेउं भणिओ भवणे, जइ पव्वज्जं पवज्जसे सज्जो । ता पाणवाडनरयाऽवडाओ एयाओ कड्ढेमि ||४१ ॥ तेणुत्तं होइ कहूं, एवं विग्गोवियस्स मह तुमए । देवेणुत्तं अज्जवि, न किंपि खूणं पवज्जवयं ॥ ४२ ॥ स भणेइ ताव मं मुज्झवेसु बारससमाणमुवरि धुवं । जं भणसि तं करिस्सं, पसीय ता देहि विसयसुहं ॥ ४३ ॥ भणियं सुरेण अव्वो, केण पयारेण कारिमो सुद्धिं । तेणुत्तं परिणावसु, सेणियनरनाहवरधूयं ॥ ४४ ॥ मायंगस्स वि मज्झं, दाविस्सइ सेणिओ धुवं धूयं । जइ देसि दव्वजायं, सामि ! तुमं तस्स निस्सीमं ॥ ४५ ॥ “ विप्पा पुहईपाला, विलासिणीओ चउत्थया चोरा । अइलोहग्गहगहिया, किमकज्जं जं न कुब्वंती " ॥ ४६ ॥ एवं कए अवन्नो, एसो सव्वोवि नासिओ होइ । ताहे तस्स घरे बंधीऊण छागो गओ तियसो ॥ ४७ ॥ पइवासरंपि वोसिरइ, एस रयणाणि णेगरुवाणि । ताण भरिन थालं, पुत्तेण समप्पियं पिउणो ॥ ४८ ॥ भणियं दाऊणेयं, रन्नो कन्नं विमग्ग मज्झकए। तह विहिए कि मग्गसि, पुट्ठे कन्नति निच्छूढो ॥ ४९ ॥ एवं दिणे दिणे सो, दिंतो रयणाण थालमेगेगं । पुट्ठो अभणए कुओ एयाणि स आह छगलाओ ॥ १५० ॥ मरगय-मोत्तिय - माणिक्क - अंकए मुहाणि वोसिरेइ सया । छागोविय अभएणं, सो बद्धो निवसमीवंमि ॥ ५१ ॥ महीनाह-मंति-सामंत-तंतपाल - प्पमुक्खलोयंमि । कह कह रयणाई वोसिरेइ एसोत्ति जोयंते ॥ ५२ ॥ मुंचइ वच्चाई साणमडयगंधुष्धुराई सो तत्थ । जह नासाओ वासेहिं, पिहियलोओ गओ दूरं ॥ ५३ ॥ चिंतंतेण चिरेणं, नाओ अभएण एत्थ परमत्थो । नूण न विन्नणमयं सुराणुभावो वियंभेइ ॥ ५४ ॥ भणियमभएण करेसु. वैभारगिरिम्मि रायरहमग्गं । जं नरनाहो सामिं, दुहे (ए)ण वंदे || ५५ ॥ तव्वयणाणंतरमेव, तेण तियसेण सो तहा विहिओ । अज्जवि तहेव दीसइ, तदेसनिवासिलोएहिं ॥ ५६ ॥ १ विउालसि C वहालसि B
गं
श्रीमेतार्यमुनिसन्धिः ।
।। २७४ ॥