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उपदेशमाला - विशेषवृत्तौ
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ओ होही, तुह एस सलक्खणो पुत्तो ॥ २५ ॥ पुनराह - " अहह गृही क्व नु कुशली ? वध्वा, संसारसागरे क्षिप्तः । यदपि च लभते पोतं, तेनैव निमज्जति नितान्तम् ॥ २६ ॥ " कहवि विमुक्को तीए, उग्घोसिय सव्वजीववहविरई । महया विच्छड़ेणं, सम्माणिय सव्वहा संघं ॥ २७ ॥ सिहगिरिणो सगासे, नक्खत्तमुहुत्तजोगलग्गेसु । सुपसत्थेसु महानिहि-लाहुवमाणेण लेइ वयं ॥ २८ ॥ नवमासाणं अइरित्तयाणमेसा सुदं सुद्देणंतो । वोलीणाण पुरंदरदिसिव्व रविमंगयं जणइ ||२९|| मिलिओ महिलालोओ, तीए पासे परोप्परं भणइ । जइ न पिया पव्वइओ, हुंतो हुंतो अइमहंतो ॥ १३० ॥ ता ऊसवों स सन्नी, निम्मलमइनाणसंगओ सुइ । महिलाण तमुल्लावं जाईसरणो तओ जाओ ॥ ३१ ॥ चिंतेइ न पव्वज्जं, मज्झमणुव्विग्गमाणसा एसा घेत्तुं दाही उव्वेय-कारणं होमि तो ईसे ॥ ३२ ॥ निश्चपसारियवयणे, रोवेडं लग्गओ जह न एसा । सुयइ निसीयइ भुंजइ, सुहेण गिकमायरइ ॥ ३३ ॥ एवं जा छम्मासा, अहागया सिहगिरिगुरू तत्थ । नयरुज्जाणंमि ठिया, विहीए सज्झायजोगंमि ॥ ३४ ॥ पत्ते भिक्खावसरे, धणगिरि-समिया भणति सिगिरिं । भयवं ! सन्नायगलोगदंसणत्थं गिहे जामो ||३५|| गुरुणाऽणुमन्निया ते, सप्पहिाणा कुणति उवओगं । जा ता उत्तमफलयं, किंचि निमित्तं समुत्पन्नं ॥ ३६ ॥ गुरुराह गया संता, सचित्तमियरं च जं लभेजाह । तं सव्वमुवाएज्जह, जमज्ज सउणो महं जाओ ॥ ३७ ॥ तो दोवि सुनंदाए, गिद्दे गया सा वि निग्गया तत्तो । मिलियासु कुलमहेलासु, पाणिसंपुढयकयपुत्ता ॥ ३८ ॥ पणमिय पाए पभणइ, मए चिरं पालिओ इमो बालो । संपइ पुण पडिगाहसु, जओ समत्था न एत्तोहं ॥ ३९ ॥ इय भणियंमि स पभणइ, पच्छायावं करेसि जइ कवि । तइया किं कायव्वं, सा भणइ जो इमो सक्खी ॥ १४० ॥ जइ किंचि भणामि अहं, इय दृढबंधं करितु तीए समं । धर्णागिरिणो सो बालो, पत्ताबंघेण संगहिओ ॥ ४१ ॥ तयणंतरं न रोयइ, जाणइ जाओ जहा अहं समणो । नीओ गुरुपयमूले, सलक्खणत्तेण सो गरुओ ॥ ४२ ॥ धणगिरिणो बाहं नाभिऊन जा नेइ भूमिमह सूरी । भरियं भारेणं परिभाविऊण हत्थं पसारेइ ॥ ४३ ॥ सो वि य भूमिपत्तों, जा जाओ ताव सूरिणा भणियं । अब्बो किं वइरमिमं जं भारियभावमुव्वहइ ॥ ४४ ॥ जा पेच्छइ सुरकुमरोवमाणमेयं सविम्हओ
वज्रस्वामिचरित्रम् |
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