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उपदेशमालाविशेषवृत्तिः
॥११७॥
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राजा-बहुवाहिणिपरिवारो, न कारणं होइ विजय(व)चज्जाए। घणहरिणजूहजुत्तपि, कालसारं हणेइ हरी ॥ ६७ ।। पुण
जा सा सा पलवंतो कोवेण, आलजालाई रायदूओ सो। पडिहणिओ पडिहारेण, धाडिओ धारिऊण गले ॥ ६८ ॥ गंतूण तेण तत्तो, उज्जेणी
सेतिकथायां भत्तुणो समीवंमि । तं सविसेसमसेसंपि, साहियं तस्स तो कुविओ ॥ ६९ ।। दावइ पयाणढकं, समसामग्गिसंगओ स तओ।
चित्रकारअचिरेण चेव कोसंबिविसयसंधीए संपत्तो ।। ७० ॥ इय सोऊणं उव्वणहिययधसक्केण नाइचक्केण । मरण सयाणिओ सो, पत्तो
वरलाभः। पोट्टण छट्टेण ॥ ७१ ॥ अह सा सहसा संजाया, सोयवेया मियावई देवी । कयमयकिच्चा चिंतइ, चिंताचक्केणमक्कमिया ॥७२॥ मह जाउ खयं लावन्नवन्नसोहमगचंगिमा ईयं । जेणेस सिरे वसणासणिस्स जाओ मह निवाओ ॥ ७३ ।। किमहं करेमि संपइ, सीलं महाए खंडिही पावो । हणिऊणं अपाणं, ता तमहं किंतु रक्खेमि ॥ ७४ ॥ खंडिजइ मड्डाए, चड्डेउं जा सीलमन्ना ता। जीवंताओ तोडइ, सडाओ को नाम केसरिणो ॥ ७५ ॥ अहवा-चेडयनरिंददुहिया भ(यि)इणी भुवणेकमाणुवीरस्स । अज्जवि अणुवज्जिय, तदणुरूवकित्ती कह मरामि ॥ ७६ ॥ पुण जीवंती तत्तो, कालकरालाउ पालिउं सीलं । कह पारेमि हहा वग्घ दोत्तडीनायनडियाहं ।। ७७ ॥ ता ताव पावपगइस्स, तस्स वयणाणि मन्निय करेमि । “ कालविलबं सो चेव, सव्ववसणाण पडियारो ॥ ७८ ॥" तत्तो चित्तोवन्नासपेसलं पेसए पहाणनरं । सा पज्जोयमहीवइ, सम्मुहमाहे स तं नमिउं ॥ ७९ ॥ विनवइ देव ! देवी, तुह तिव्वपयावपावगेण खणा । मह भत्ता पंचत्तं पत्तो रणकेलिकंडूलो ॥ ८॥ ता संपयमबलाए, मज्झोवरि ते न जुज्जइ पयाणं । जाइजउ उज्जेणीए, अज वलिऊणमेत्तो वि ॥ ८१ ॥ जो आसि सयाणीओ, सो आणीओ जमेण नियगेहे । अन्ना का मज्झ गई, ता अहुणा भणसु भ(त)इणी स ॥ ८२॥ राजा-देवी दंसणदुव्वारमारउम्माहएण एमि पुरिं । पुरुषः-सयमेव देव ! देवी उवेइ किमु वक्खएण तओ ।। ८३॥ 10
॥११७॥ राजा-कइया समागमिस्सइ, पुरुषः-जया पुरीए करेसि सुत्थतं । अन्नह सुन्निहियनिवेहिं, लहु सुओ चंपियव्वो त्ति ॥८४॥