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उपदेशमाला
विशेषवृत्तिः
॥ १०७ ॥
ब्रह्मदत्तः - वज्जेमि रज्जमेयं, भोए भुंजेसि जइ तुमं घेत्तुं । एत्तियमित्तेणाऽहं कयकिचो तुज्झ दासो व्व ॥ १५ ॥ मुनिः— मह वि न न आसि भोगा भवभीएणं परं परिचत्ता । सुणयाओ को अन्नो नरवइ ! वंतं पिवासेइ ॥ १६ ॥ ब्रह्म० – इह पहु ! पव्वज्जाए, परलोए फलमभंगुरा भोगा । करपत्ते ते मुत्तुं पव्वज्जा किज्जड किमत्थं ॥ १७ ॥ मुनिः - जिणधम्मो मोक्खफलो सासयसोक्खो जिणेहिं पन्नत्तो । नरसुरसुहाई अणुसंगियाई इह किसि पलालं व ॥ १८ ॥ ब्रह्म० – विसयासेवाहिं पहाणमेत्थ केवलमणंगसोक्खं तं । ता एसो चिय मोक्खो अन्नो मोक्खो पुण न वक्खो ॥ १९॥ जइ सद्दरूवरसगंधफासलेसोवि तत्थ नत्थि सुहो। ता संसारो सारो इत्थीओ जत्थ भोगत्थं ॥ ५२० ॥
मुनिः - मइ बंधवे वि पत्ते हत्थालंबणपरायणे वि हहा। एरिस मोक्खस्स फलं इह जम्मे लहसि नरए य ॥ २१ ॥ मोहमहावागुरिएण वागुरावि रइया भवारण्णे । एसा सारंगच्छी नरसारंगाण गहणकए ॥ २२ ॥ तरुणीसु सरसवसमंस रुहिरउच्चारभरियखल्लासु | चंदअरविंदकुंदेहिं दिति उवमाणमिह मूढा ॥ २३ ॥
ब्रह्म० - मह पढमपत्थणाए कयत्थाणा सामि ! किज्जइ किमत्थं । रज्जं पालिय पच्छा पव्वयसु अपि अणुचारी ॥ २४ ॥ मुनि:- तुह संजमे न पच्छा, विनिच्छओ निच्छओ मह एसो । पच्छावि दिक्खियव्वे न दिक्खचायं करेमिन्हि ॥ २५ ॥ चविणं सग्गाओ, जं जाया दुक्कएण दासाई । सुमरंतस्स वि तं तुह किं पम्हुसियं विसयवसिणो ॥ २६ ॥ सुकुलागमाइसामग्गिसंगओ नरभवो इमो लद्धो । मा हारिज्जउ बिसएहिं पायसोएण अमयं व ॥ २७ ॥ विहियनियाणो नियमेण नायमूरीकरिस्सए दिक्खं । इय चिंतिऊण चित्ते चित्तमुणि विहरए तत्तो ॥ २८ ॥ कयघाइघायसंजायकेवलो बिहरिऊण चिरकालं । परमपयं संपत्तो पक्खालियसयलकम्ममलो ॥ २९ ॥ संसारसारसोक्ख-सुलालसो बंभदत्तचक्की वि । तच्चित्तो तल्लेसो, अइवाहइ सत्तवाससए
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ब्रह्मदत्तचक्रिसन्धिः
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