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उपदेशमालाविशेषवृत्तिः
भरतसमृद्धिः।
॥६३॥
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| गंगादेविं साहइ त निक्खुडगं सुसेणहत्येण । वाससहस्सं गंगाए सद्धिमुवभुंजए भोए ॥४१॥ नमिविनमी संसाहइ, ते थीरय
णाइ दिति ढोयणीयं । गंगाकूलाउ चलंति, सेविउं सह नवनिहीओ ॥४२॥ ओयवइ नट्टमालं खंडगुहाए इमा अहुग्घडइ । खंडगुहाए | तह चेव नीइ इह एइ भरहद्धे ॥ ४३ ॥ वासाण सहस्सेहिं, सट्ठीए साहिउं सयलभरहं । पत्तो विणीयनयरीए विहियअइ
भूरिभंडारो ॥४४॥ अंतेउरचउसट्ठी सहसा बत्तीसमउडबद्धाणं । हयगयरहाण लक्खा चुलसीई रयणचउदसगं ॥४५॥ छन्नवई कोडीओ, पाइकाणं तहेव गामाणं । इय एवमाइ चक्किस्स तस्स जाया तया रिद्धी ॥४६॥ बारसवासाइं कओय सव्वराईहिं रजअमिसेओ। सयणं संभालितेण सुंदरी दुबला द्विा ।। ४७ ।। आयंबिलेहिं ओलुम्गआणणा पर्यणुजायराएण । भणिया भरहेण किसंगि! होसु गिहिणी अहव वइणी ॥४८॥ सा पव्वइया भरहो अहन्नया भाउयाण नियदूयं । पेसइ इमाणि महसंतियाणि रज्जाणि अप्पिणह ॥ ४९ ॥ तेण तहा विन्नत्ते भणंति ते एय रज्जसामित्तं । भरहस्स कहं तारण अम्ह एयाणि दिनाणि ॥ ५० ॥ पहुणा पणामियं चेव, दूय ! भरहोवि भुंजए रजं । जह न तमप्पइ अम्हं न वयंपि तहऽप्पिमो तस्स ॥५१॥ “कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तंगताः, स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राज्ञां प्रियः।
कः कालस्य न गोचरान्तरगतः कोऽर्थी गतो गौरवं, को वा दुर्जनवागुरासु पतितः क्षेमेण जातः पुमान् ॥ ५२॥" ___ इति विमृश्य पुनस्तैरुक्तम्-अहवा पुच्छिस्सामो सामि तस्सासणं कुणिस्सामो। गंतूण तओ दूएण, चक्किणो साहियं सव्वं |॥५३॥ सामी वि विहरमाणो, कयाइ अट्ठावए समोसरिओ। गंतूण पणमिऊण य, तं विन्नत्तं कुमारेहिं ॥५४ ।। ता किं संगामेऊण रक्खिमो ताई अहव अप्पेमो। रिसहो विसयपिवासाऽवसारणिं देसणं कुणइ ॥ ५५ ॥ अलमलमिमेहिं विसएहिं वच्छय ! अणत्थकच्छुकप्पेहिं । आसंसारं आसेविएहिं नहु जेहिं पज्जत्ती ॥५६॥ किं च- ।
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