SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ५७ ] यहाँ नूपुर के 'मौनित्व' रूप निमिन (धर्म) के कारण उसके हेतु 'दुःख' की संभावना की गई है। यदि यहाँ नूपुर में 'दुःखी' ( मनुष्य ) की कल्पना की जाती तो वस्तूत्प्रेक्षा हो सकती है, किन्तु यहाँ ऐसी बात नहीं है। (५) हम कई ऐसे स्थल भी देखते हैं, जहाँ अप्रकृतधर्मिक उत्प्रेक्षा भी पाई जाती है, पर आपके लक्षण में 'प्रकृतं' पद के कारण यह स्पष्ट है कि उत्प्रेक्षा अलंकार में केवल प्रकृतधर्मिक उत्प्रेक्षा ही हो । तब तो यह लक्षणांश निम्न पद्य में लागू न हो सकेगा। हृतसारमिवेन्दुमंडलं दमयन्तीवदनाय वेधसा। कृतमध्यबिलं विलोक्यते तगंभीरखनीखनीलिम ॥ 'ऐसा जान पड़ता है कि ब्रह्मा ने दमयन्ती के मुख का निर्माण करने के लिये मानों चन्द्रमा के सारमाग का अपहरण कर किया है। तभी तो विब के बीच में रिक्त स्थान वाले इस चन्द्रमा में गम्भीर गड्ढे के बीच से यह आकाश की नीलिमा दिखाई दे रही है।' इस पथ में चन्द्रमंडल के विषय में यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उसका सार दमयन्ती के मुख की रचना करने के लिए ले लिया गया है। इस प्रकार यहाँ अप्रकृतधर्मिक उत्प्रेक्षा है। इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि इस पद्य में प्रकृतधर्मिक उत्प्रेक्षा नहीं है। यदि कवि इस प्रकार की कल्पना करता कि दमयन्ती का मुख मानों चन्द्रमा के सार का अपहरण कर उससे बनाया गया है तो यहाँ प्रकृतधर्मिक उत्प्रेक्षा हो सकती है। वस्तुतः 'हृतसारमिदुमंडलं' में 'इव' का अन्वय 'हृतसारं' के हाथ होगा, जो 'इन्दुमंडल' का विशेषण है, अतः संभावनापरक इव शम्द अप्रकृतधर्मिक उत्प्रेक्षा को ही पुष्ट करता है। ___ दीक्षित के मत से उक्त लक्षण दुष्ट नहीं है। दीक्षित ने शंकाकार की उपर्युक्त शंकाओं का यथोचित निराकरण किया है। (१) उक्त उत्प्रेक्षालक्षण की 'हृतसारमिवेंदुमडलं' इत्यादि पथ में अव्याप्ति हो, ऐसी बात नहीं है। वस्तुतः प्रकृत शब्द से हमारा तात्पर्य केवल 'उपमेय' (मुखादि) से ही न होकर 'विषयत्व' मात्र से है। ऐसी स्थिति में 'उपमान' (चन्द्रादि ) भी प्रकृत हो सकते हैं। (२) आपका यह कथन कि उक्त लक्षण हेतूत्प्रेक्षा, फलोत्प्रेक्षा तथा धर्मस्वरूपोत्प्रेक्षा मे लागू नहीं होगा, ठीक नहीं। वस्तुतः 'अन्यत्वेनोत किंतम्' में 'अन्यत्वेन' का अर्थ 'अन्य प्रकार से है, इस अर्थ के लेने पर हम देखते हैं कि जैसे एक धर्मी में अन्य धर्मी की तादात्म्यसंभावना की जाती है, वहाँ अन्य धर्मी 'अन्य प्रकार है ही, ठीक उसी तरह जहाँ कोई एक धर्म हेतुरूप में, फलरूप में या स्वरूपतः संभावित किया जाता है, वहाँ भी वह धर्म अन्य प्रकार का होता ही है। इस तरह उक्त लक्षण इन उत्प्रेक्षाभेदों में भी घटित हो ही जाता है। ___ स्प्रेक्षा में उपमा की भाँति अनुगामी, साधारण धर्म, बिंबप्रतिविमावरूप धर्म-सभी प्रकार का धर्म पाया जाता है। - इसके बाद दीक्षित ने उत्प्रेक्षा के भेदोपभेद का संकेत किया है। कुवलयानन्द में दीक्षित ने केवल छः उत्प्रेक्षाएँ ही मानी हैं :-उक्तविषया तथा अनुक्तविषया वस्तुहेतुफलोत्प्रेक्षा। अलंकारसर्वस्वकार रुग्यक के भेदोपभेद का संकेत करते दीक्षित ने चित्रमीमांसा में बताया है कि रुय्यकने उत्प्रेक्षा के ९६ भेद माने है। प्रतापरुद्रीयकार विद्यानाथ का उत्प्रेक्षा विभाग विशेष विस्तृत है, उसने उत्प्रेक्षा के १०४ भेद माने हैं। इसके बाद दीक्षित ने प्रमुख प्रमुख उत्प्रेक्षाभेदों का विस्तार से विवेचन किया है, जो चित्रमीमांसा में द्रष्टव्य है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy