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________________ [ ५६ 1 (१) उक्त लक्षण का 'अन्यधर्मसंबंधात्' पद इस बात का संकेत करता है कि जहाँ किसी धर्म को निमित्त बनाकर प्रकृत में अप्रकृत की कल्पना की जायगी, वहीं उत्प्रेक्षा होगी । यही कारण है, इस लक्षण की अतिव्याप्ति 'यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम्' वाली अतिशयोक्ति तथा संभावना अलंकार में न हो सकेगी, क्योंकि वहाँ निनिमित्तक कल्पना पाई जाती है। (२) साथ ही यह कल्पना सदा अप्रकृत के रूप में की गई हो, इस बात का संकेत करने के लिए 'अन्यत्वेनोपतर्कितम्' कहा गया है। यदि प्रकृत में अप्रकृत की कल्पना न होकर केवल संभावनामात्र पाई जायगी तो वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार न हो सकेगा। अतः जहाँ धूल को सामने उड़ती देखकर राम यह शंका करते हैं कि संभव है हनूमान् से राम का आगमन सुनकर ससैन्य भरत उनकी आगवानी करने आ रहे हैं, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार नहीं है। विरकसंध्यापरुषं पुरस्ताधतो रजः पार्थिवमुज्जिहीते । शके हनमस्कथितप्रवृत्तिः प्रत्युदतो मां भरतः ससैन्यः । (३) 'उपतकिंतम्' पद का प्रयोग अनुमान अलंकार का वारण करता है, क्योंकि अनुमान में लिंग के द्वारा लिंगी का अवधारण या निश्चय हो जाता है, वहाँ तर्क या कल्पना नहीं होती। (४) साथ ही यह भी आवश्यक हो कि यह कल्पना प्रकृत से ही संबद्ध हो इसलिये 'प्रकृत' पद का प्रयोग किया गया है। जहाँ कहीं अप्रकृत से संबद्ध कोई संभावना पाई जायगी, वहीं उत्प्रेक्षा न होगी, जैसे 'सीतायाः पुरतश्च हन्त शिखिनां बर्हाः सगर्दा इव' में, जहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार माना गया है। विरोधी विदान उक्त लक्षण में अभ्याप्ति दोष मानते हैं। उनके मत से उत्प्रेक्षा के कई ऐसे स्थल देखे जा सकते है, जहाँ वर्णित संभावना निमित्त या तो केवल प्रकृतमात्र का धर्म होता हैं, या केवल अप्रकृतमात्र का। ऐसे स्थिति में दोनों के धर्मों में परस्पर संबंध न होने से 'अन्यधर्मसंबंधात्' वाला लक्षणांश ठीक न बैठ सकेगा। फिर तो ऐसे स्थलों में आपके अनुसार उत्प्रेक्षा न हो सकेगी। अंगुलीभिरिव केशसंचयं संनियम्य तिमिरं मरीचिभिः। कुमाजीकृतसरोजलोचनं चुम्बतीव रजनीमुखं शशी ॥' यहाँ 'अंगुलियों के समान किरणों के द्वारा केशपाश के समान अंधकार के ग्रहण रूप निमित्त के कारण चन्द्रमा के द्वारा रजनीमुख को चूमना संभावित किया गया है। उक्त निमित्त केवल प्रकृत का ही धर्म है, अप्रकृत का नहीं, क्योंकि धर्माश में उपमा होने के कारण वहाँ 'किरणों' व 'अंधकार' की ही मुख्यता है। साथ ही 'अन्यत्वेनोपतकिंतम्' में प्रयुक्त 'अन्यत्वेन' का अर्थ केवल 'अप्रकृतत्वेन' है। अतः इस दृष्टि से जहाँ धर्मिसंबंधी वस्तूस्प्रेक्षा या स्वरूपोत्प्रेक्षा होगी, वहीं यह लक्षण घटित हो सकेगा, हेतूत्प्रेक्षा, फलोत्प्रेक्षा तथा धर्मस्वरूपोत्प्रेक्षा में आपका लक्षण संगत न हो सकेगा, क्योंकि वहाँ तो प्रकृत की अन्यत्वकल्पना होती नहीं, ( अपितु प्रकृत के फल या हेतु की अन्यत्वकल्पना होती है)। अतः यह लक्षण निम्न पद्य जैसे उत्प्रेक्षास्थलों में लागू न हो सकेगा। सैषा स्थली यत्र विचिन्वता स्वां भ्रष्टं मया नूपुरमेकमुाम् । अदृश्यत स्वचरणारविन्दविश्लेषदुःखादिव बद्धमौनम् ॥ 'हे सीता, यह ठीक वही जगह है, जहाँ तुम्हें ढूंढते हुए मैंने जमीन पर गिरे एक नूपुर को देखा था, जो मानों तुम्हारे चरणारविंद के वियोग के दुःख से मौन हो रहा था।' १. इसकी हिंदी व्याख्या के लिये दे० हिंदी कुवलयानंद १० २९० ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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