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________________ [ ५२ ] इस पद्य को लेकर पंडितराज जगन्नाथ तथा विश्वेश्वर दोनों ने रसगंगाधर एवं कौस्तुभ में दीक्षित का खंडन किया है। उन्होंने इस पथ की रचना को ही अविसंष्ठुल बताया है, तथा इसमें कई दोष ढूंढे है। पहले तो स्तनकलशों में मंजरी की भ्रांति निबद्ध करना व्यर्थ है, क्योंकि उनमें सादृश्य कविसमयप्रसिद्ध नहीं है। अतः जब उनमें सादृश्य ही नहीं है, तो भ्रांतिमान् कैसे हो सकेगा ? दूसरे, 'कीरदष्टाः' पद दुष्ट है, इसमें अविमृष्टविधेयांश दोष है। यहाँ कीरैर्दष्टाः' होना चाहिए था। तीसरे, 'पिकनिनदपिया' पद भी दुष्ट है। कौओं को रमणियों में कोकिलालाप की भ्रांति नहीं होती, हाँ कोकिलाओं की भ्रांति हो सकती है। साथ ही कौए कोकिलाओं को ही मार भगाते है, कोकिलालाप (पिकनिनद ) को नहीं। अतः यहाँ 'पिकनिकरघिया' पाठ होना चाहिए। साथ ही कोयल का शब्द 'कूजित' कहलाता है, 'निनद' नहीं, अतः यह भी दोष है। चौथे, इस पत्र में अन्वयदोष भी है-'त्वदरिमृगदृशां' का अन्वय किसी तरह प्रथम एवं द्वितीय चरण में तो लग जाता है, पर तृतीय चरण में 'तलोपायालयन्त्यः' के साथ कैसे लगेगा ? यदि किसी तरह विमक्तिपरिणाम से अन्वय ठीक बैठाया जायगा, तो भी पच की शिथिलता स्पष्ट है ही। __पर देखा जाय तो यह खंडन दीक्षित का न होकर पबरचयिता कवि का है। दीक्षित का दोष तो इतना है कि उन्होंने ऐसे दुष्ट पब को उदाहरण के रूप में उपन्यस्त किया है। __ भ्रांतिमान् अलंकार के प्रकरण में दीक्षित ने इस बात पर जोर दिया है कि भ्रांतिमान् तथा संदेह दोनों अलंकार सादृश्यसम्बन्ध होने पर ही हो सकेंगे। अतः निम्न पत्रों में क्रमशः संदेह तथा भ्रांतिमान् नहीं माने जायेंगे। अमुष्य धीरस्य जयाय साहसी तदा खलु ज्यां विशिखैः सनाथयन् । निमज्जयामास यशांसि संशये स्मरत्रिलोकीविजयार्जितान्यपि ॥ 'यहाँ नल जैसे दुर्जेय व्यक्ति को जीतने में साहस करते समय कामदेव ने अपनी कीर्ति को संदेह में डाल दिया'-यह संदेहनिबंधन सादृश्य-प्रयोजित नहीं है, अतः यहाँ संदेह अलंकार नहीं है। दामोदरकरांघातचूर्णिताशेषवक्षसा। रटं चाणूरमरलेन शत चन्द्रं नभस्तलम् ॥ यहाँ कृष्ण के हाथों की करारी चोट पड़ने पर चाणरमल को अकश में सौ चाँद दिखाई पड़ेवह भ्रांति भी सादृश्यप्रयोजित न होकर गाढमर्मप्रहार के कारण है, अतः यहाँ भी भ्रांतिमान् अलंकार नहीं है। (९) उल्लेख दीक्षित ने उल्लेख के दोनों प्रकारों का विवेचन किया है। उल्लेख का लक्षण उपन्यस्त करते बताया गया है कि 'जहाँ एक ही वस्तु का निमित्तभेद के कारण अनेकों के द्वारा अनेक प्रकार से उल्लेख किया जाय वहाँ उल्लेख होता है।' निमित्तभेदादेकस्य वस्तुनो यदनेकधा। उल्लेखनमनेकेन तमुल्लेखं प्रचक्षते ॥ (चित्र० पृ० ७७)
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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