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________________ संकरालङ्कारः २६७ कीर्तनमप्रस्तुतप्रशंसा । यद्वा,-वर्ण्यमानमहोरगवृत्तान्तकीर्तनेन समीपस्थितखल मर्मोद्धाटनं क्रियत इति उभयस्यापि प्रस्तुतत्वात् प्रस्तुताङ्कुर इति संदेहः । १२२ एकवचनानुप्रवेशसङ्करः एकवाचकानुप्रवेशसंकरस्तु शब्दार्थालंकारयोरेवेति लक्षयित्वा काव्यप्रकाशकार उदाजहार स्पष्टोच्छुसत्किरणकेसरसूर्यबिम्ब विस्तीर्णकर्णिकमथो दिवसारविन्दम् । श्लिष्टाष्टदिग्दलकलापमुखावतार बद्धान्धकारमधुपावलि संचुकोच ।। तत्रैकपदानुप्रविष्टौ रूपकानुप्रासौ यत्रैकस्मिन् श्लोके पदभेदेन शब्दार्थालंकारयोः स्थितिस्तत्र तयोः संसृष्टिः, इह तु संकर इति । अलंकारसर्वस्वकारस्तु कारण प्रस्तुतांकुर अलंकार होगा। ऐसी स्थिति में हम किसी एक अलंकार के विषय में निश्चित निर्णय नहीं दे पाते। अतः यहाँ भी समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा और प्रस्तुतांकुर का संदेहसंकर अलंकार है। १२२. एकवचनानुप्रवेशसंकर जहाँ एक ही वाचक के द्वारा दो अलङ्कारों की प्रतीति हो, वहाँ एकवाचकानुप्रवेशसंकर या एकवचनानुप्रवेशसंकर होता है। काव्यप्रकाशकार मम्मटाचार्य के मतानुसार एकवाचकानुप्रवेशसंकर केवल शब्दालकार तथा अर्थालङ्कार में ही हो पाता है। काव्यप्रकाशकार ने इसका उदाहरण निम्न पद्य दिया है। टिप्पणी-मम्मटाचार्य ने काव्यप्रकाश के दशम उल्लास में संकर का एक भेद वह माना है, जहाँ शब्दालंकार तथा अर्थालंकार एक ही पद में प्रगटरूप में स्थित हों। इसी को एकवाचकानुप्रवेशसंकर कहा जाता है। स्फुटमेकत्रविषये शब्दार्थालंकृतिद्वयम् ।। व्यवस्थितं च (तेनासौ त्रिरूपः परिकीर्तितः)॥ (१०.१४१) ___ अभिन्ने एव पदे स्फुटतया यदुभावपि शब्दार्थालंकारौ व्यवस्था समासादयतः, सोप्यपरः संकरः । इसका उदाहरण काव्यप्रकाश में वही 'स्पष्टोल्लसकिरण' इत्यादि पद्य दिया गया है। महाकवि रत्नाकर के हरविजय के उन्नीसवें सर्ग का प्रथम पद्य है । कवि सायंकाल का वर्णन कर रहा है। इसके बाद स्पष्ट प्रकाशित किरणों के केसर से युक्त सूर्यबिम्बरूपी बड़े कर्णिक वाला दिनरूपी कमल; जिसके परस्पर मिलकर सिमटते हुए दिशासमूहरूपी पत्तों के कारण रात्रि के आरंभ में होने वाले अन्धकाररूपी भँवरों की पंक्ति आबद्ध हो रही थी; संकुचित हो गया। इस पद्य में 'किरणकेसर' 'सूर्यबिम्बविस्तीर्णकर्णिक' और 'दिग्दलकलाप' में रूपक तथा अनुप्रास दोनों अलंकार एक ही पद में प्रविष्ट हैं, अतः यहाँ संकर अलंकार है । जहाँ शब्दालङ्कार तथा अलङ्कार अलग अलग पदों में स्थित हों वहाँ संकर न होगा संसृष्टि होगी। पर यहाँ ऐसा नहीं है, अतः यहाँ तो संकर ही है। अलङ्कार सर्वस्वकार सय्यक ने
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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