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________________ २६६ कुवलयानन्दः अतस्तापशान्तिरपि गगनकुसुमकल्पेत्यर्थे कविसंरम्भश्चेदुपात्तमिध्यात्वसिद्ध चर्थ मिथ्यार्थान्तर कल्पनारूपा मिथ्याध्यवसितिरित्युभयथासंभवात् संदेहः । एवम् - सिक्तं स्फटिककुम्भान्तः स्थितिश्वेतीकृतैर्जलैः । मौक्तिकं चेल्लतां सूते तत्पुष्पैस्ते समं यशः ।।' इत्यादिष्वपि संभावनामिध्याध्यवसिति संदेहसंकरो द्रष्टयः ॥ मुखेन गरलं मुञ्चन्मूले वसति चेत्फणी | फल संदोहगुरुणा तरुणा किं प्रयोजम् ? ॥ अत्र महोरगवृत्तान्ते वर्ण्यमाने राजद्वाररूढखलवृत्तान्तोऽपि प्रतीयते । तत्र किं वस्तुतस्तथाभूत महोरग वृत्तान्त एव प्रस्तुतेऽप्रस्तुतः खलवृत्तान्तस्ततः प्रतीयत इति समासोक्तिः । यद्वा-प्रस्तुतखलवृत्तान्तप्रत्यायनाया प्रस्तुत महोरगवृत्तान्त होगा । अतः सहृदय पाठक इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाता कि यहाँ सम्भावना अलङ्कार है या मिथ्याध्यवसिति, फलतः यहाँ भी संदेह संकर है। ठीक इसी तरह निम्न उदाहरण में सम्भावना तथा मिथ्याध्यवसिति का संकर देखा जा सकता है :-- ( कोई कवि राजा की प्रशंसा कर रहा है । ) हे राजन्, यदि स्फटिकमणि के घड़ों में रखने के कारण सफेद बने जल से सींचा गया मोती ( का बीज ) किसी बेल को पैदा करे, तो उस बेल के पुष्पों के समान श्वेत तुम्हारा यश है । यहाँ 'यदि ऐसा फूल हो तो तुम्हारे यश की तुलना की जा सकती है' इस प्रकार संभावना अलङ्कार है, या 'मोती से कभी बेल नहीं पैदा होती, न ऐसी बेल के फूल ही, अतः तुम्हारे यश के समान पदार्थ कोई नहीं हैं' यह मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार ? इस प्रकार अनिश्चय के कारण यहाँ भी संदेह संकर है । फलसमूह से झुके हुए ऐसे वृक्ष से हुआ सौंप निवास करता है ? क्या कायदा, जिसकी जड़ में मुँह से जहर उगलता इस पथ में महासर्प के वर्णन के द्वारा राजदरबार में रहने वाले दुष्ट व्यक्तियों के वृत्तान्त की व्यंजना की गई है। यह पता नहीं चलता कि प्रस्तुत विषय कौन-सा है, सर्पवृत्तान्त या खलवृत्तान्त, या दोनों ही प्रस्तुत हैं ? यदि सर्पवृत्तान्त को प्रस्तुत मानकर खलवृत्तान्त को अप्रस्तुत माना जाय तो यहाँ समासोक्ति अलङ्कार होता है, क्योंकि यहाँ प्रस्तुत के वर्णन के द्वारा तुल्य व्यापार के कारण प्रस्तुत खलवृत्तान्त की व्यंजना हो रही है । पर साथ ही यह भी संदेह होता है कि कहीं यहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा न हो ? संभव है, कवि ने राजदरबार में प्रविष्ट खलों को देखकर अप्रस्तुत ( सर्पवृत्तान्त ) के द्वारा प्रस्तुत ( खलवृत्तान्त ) की व्यंजना कराई हो । साथ ही ऐसा भी संभव है कि यहाँ दोनों पक्ष प्रस्तुत हों, तथा किसी कवि ने प्रस्तुत सर्प का वर्णन करते हुए किसी समीपस्थ दुष्ट व्यक्ति के रहस्य का उद्घाटन भी किया हो, तथा कवि का लक्ष्य दोनों का प्रस्तुतरूप में वर्णन करना रहा हो । यदि तीसरा विकल्प हो तो फिर यहाँ दोनों पक्षों के प्रस्तुत होने के
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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