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________________ संकरालङ्कारः २६१ त्वाश्च । तथापि वाक्योक्तोपमायामिवकारस्य 'मरीचिभिरिव' इत्यन्वयान्तरमभ्युपगम्यान्वयभेदलब्धस्य प्रकृता प्रकृतयोरेकै कविषयस्यार्थद्वयस्य समासोक्तोपमायां 'सरोजसदृशं लोचनम्' इति समासान्तरमभ्युपगम्य समासभेदलब्धार्थद्वयस्य चाभेदाध्यवसायेन साधारण्यं सम्पाद्य च तयोरुत्प्रेक्षासमासोक्त्योरङ्गता निर्वाह्या । यद्वा - इह प्रकृत कोटिगतानां मरीचितिमिरसरोजानामप्रकृत कोटिगतानां चालिकेशसञ्चयलोचनानां च तनुदीर्घारुणत्वनीलनीरन्ध्रत्व का न्ति मत्त्वादिना सहशानां प्रातिस्विकरूपेण भेदवत् अनुगतसादृश्यप्रयोजकरूपेणाभेदोऽप्यस्ति स क्योंकि उत्प्रेक्षा तथा समासोक्ति के लिए यह जरूरी है कि धर्मं सामान्यनिष्ठ हो, विशेषनिष्ठ नहीं - यह इसलिए कि उत्प्रेक्षा में प्रकृत ( मुख ) तथा अप्रकृत ( चन्द्रादि ) की समान गुणक्रियारूप को लेकर उसके आधार पर प्रकृत में अप्रकृत की संभावना करना आवश्यक होता है, तथा समासोक्ति में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के लिए तुल्यविशेषण का प्रयोग किया जाता है -- तथापि वाक्य में उपात्त ( वाक्योक्त) उपमा में प्रयुक्त 'इव' से 'मरीचिभिरिव' इस दूसरे ढंग से अन्वय करके इस भिन्न अन्वय से प्राप्त अर्थद्वय से, जो कि प्रकृत ( चन्द्रपक्ष ) तथा अप्रकृत (नायकपक्ष) दोनों में घटित होता है, समासोक उपमा ( सरोजलोचनं इस समास में प्राप्त लुप्तोपमा) के विग्रह में भी 'सरोजसदृश लोचन' इस प्रकार भिन्न प्रकार का समासविग्रह मानकर, इससे प्रतीत अर्थद्वय के लेने पर प्रकृत तथा अप्रकृत पक्ष में अभेदप्रतीति होने के कारण साधारणधर्म की सत्ता संपादित हो जायगी' इस सरणि में ये दोनों ( वाक्योक्त तथा समासोक्त - 'अंगुलीभिरिव मरीचिभिः' तथा 'सरोजलोचनं' ) उपमाएँ, उत्प्रेक्षा तथा समासोक्ति की अंग बन सकती हैं । भाव यह है कि उपमा की प्रतीति करते समय हम इस सरणि का आश्रय ले सकते हैं कि नायक पक्ष में अन्वित 'अंगुलि' तथा 'लोचन' को उपमेय मानकर चन्द्रपक्ष में अन्वित 'मरीचि' तथा 'सरोज' को उपमान बना दिया जाय, तथा वाक्योक्त उपमा में इव का अन्वय 'मरीचिभिः' के साथ करें तथा समासोक्त उपमा में 'सरोज के समान लोचन' ( सरोज सदृशं लोचनं ) यह विग्रह करें, 'सरोज लोचन के समान' ( सरोज लोचन मिव ) नहीं । इस प्रकार की उपमासरणि का आश्रय लेनेपर तो साधारणधर्म नायकनायिका के पक्ष में भी ठीक बैठ ही जाता है और इस तरह नायक-नायिका वृत्तांत के पोषक उत्प्रेक्षा तथा समासोक्ति अलंकारों का दोनों उपमाएँ अंग हो ही जाती हैं। सिद्धांत पक्षी एक दूसरी सरणि का भी संकेत करता है, जिससे ये उपमाएँ उत्प्रेक्षा व समासोक्ति के अंग मानी जा सकती हैं । हम देखते हैं इस काव्य में वर्णित कुछ पदार्थ प्रकृत (उपमेय ) हैं, कुछ अप्रकृत ( उपमान ) । इनमें किरणें, अंधकार तथा कमल प्रकृत हैं, क्योंकि ये चन्द्र और निशा से संबद्ध हैं तथा अंगुलि, केशपाश और नेत्र अप्रकृत हैं. क्योंकि वे अप्रस्तुत नायक-नायिकादि से संबद्ध हैं। पर इतना होते हुए भी इनमें कुछ दृष्टि से समानता पाई जाती है, कुछ दृष्टि से असमानता । इन पदार्थों में यह समानता पाई जाती है कि किरणें तथा अंगुलि दोनों पतली, लंबी, तथा रक्काम हैं ( दोनों में तनुदीर्घारुणत्व' समान गुण विद्यमान है ); अंधकार तथा केशपाश दोनों नीले तथा सघन हैं ( दोनों में नीलनीरन्धत्वादि समान गुण पाया जाता है), और सरोज तथा लोचन दोनों सुन्दर हैं (दोनों में कांतिमच्च समानधर्म है)। इस दृष्टि से ये दोनों एक दूसरे के समान हैं, किन्तु इनका वास्तविक रूप भिन्न है, क्योंकि अंगुलि में जो 'अंगुलिव' हैं वह 'मरीचि ' में नहीं, वहाँ 'मरीचित्व' पाया जाता है। इस प्रकार इनमें केवल यही समानता है कि
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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