SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० कुवलयानन्दः कुड्मलीकृत सरोजलोचनं चुम्बतीव रजनीमुखं शशी ।। अत्रानलीभिरिवेति वाक्योक्तोपमया तत्प्रायपाठान्मुख्यकुडमलीकरणलिङ्गानुगुण्याञ्चोपमितसमासाश्यणेन लब्धया सरोजलोचनमिति समासोक्तोपमा याङ्गभूतयोत्थाप्यमानैव शशिकर्तृकनिशामुखचुम्बनोत्प्रेक्षा निशाशशिनोर्दाम्पत्यव्यवहारसमारोपरूपसमासोक्तिगर्भेवोत्थाप्यते । उपमयोरुभयत्रोत्थापकत्वाविशेषात् समासोक्तिगर्भतां विना चुम्बनोत्प्रेक्षाया निरालम्बनत्वाच्च ! ततश्चात्राप्युत्प्रेक्षासमासोक्त्योरेककालयोः समप्राधान्यम् । यद्यप्यत्रोपमाभ्यां शशिनिशा. गतावेव धर्मों समयेते, नतु शशि-नायकयोः निशा-नायिकयोश्च साधारणौ धौं । साधारणधर्मसमर्पणं चोत्प्रेक्षासमासोक्त्योरपेक्षितम्। उत्प्रेक्षायाः प्रकृता. प्रकृतसाधारणगुणक्रियारूपनिमित्तसापेक्षत्वात् समासोक्तेर्विशेषणसाम्यमूलकरजनीमुख को ऐसे चूम रहा है, मानो वह अंगुलियों से केशपाश को पकड़ कर कमल के समान बंद आंखों वाले ( रजनी-) मुख को चूम रहा हो।' ___यहाँ 'अंगुलियों के समान (किरणों से ) इस वाक्योक्त (वाच्य) उपमा के द्वारा यदि हम इस काव्य में उपमा अलंकार को मुख्य मान कर उस संदर्भ में अर्थ करें, तो 'कुडमलीकृतसरोजलोचनं' में 'कुडमलीकरण' (मुकुलित होना) जो कि पुष्प या सरोज का असाधारण धर्म (लिंग) है, वह लोचन का भी असाधारण धर्म बन कर उपमित समास के द्वारा 'सरोजलोचनं' के समास में उक्त वाच्योपमा का सहायक होता है। यह उपमा स्वयं अंग बन कर चन्द्रमा के द्वारा निशामुखचुंबनरूप (मानो निशामुख चूम रहा है) उत्प्रेक्षा की प्रतीति कराती है। उत्प्रेक्षा अलंकार की प्रतीति के समय ही चन्द्रमा तथा रात्रि पर नायक-नायिका के व्यवहार समारोप की व्यंजना होती है, क्योंकि चुंबन क्रिया दम्पतिगत धर्म है, चन्द्रादिगत नहीं और इस प्रकार समासोक्ति की प्रतीति होती है। यह समासोक्ति उत्प्रेक्षा की प्रतीति के साथ ही घुलीमिली प्रतीत होती है। क्योंकि 'अंगुलीभिरिव' तथा 'सरोजलोचनं' वाली उपर्युक्त दोनों उपमाएँ उत्प्रेक्षा तथा समासोक्ति दोनों की प्रतीति में समानरूप से सहायक सिद्ध होती हैं, किसी एक ही अलंकार की प्रतीति में विशेष सहयोग नहीं देती, साथ ही समासोक्ति अलंकार की प्रतीति के बिना चुंबनक्रिया को सम्भावना (उत्प्रेक्षा) की प्रतीति नहीं हो सकेगी। यहाँ समासोक्ति तथा उत्प्रेक्षा दोनों अलंकारों की प्रतीति एककालावच्छिन्न होती है, अतः ये समप्रधान हैं । भाव यह है, इस पथ में प्रथम क्षण में दोनों उपमा की प्रतीति होती है, तदनंतर वे दूसरे क्षण में अंग बनकर समासोक्ति तथा उत्प्रेक्षा की प्रतीति कराती हैं। . यहाँ उपमा अलंकार है, अतः जिन धर्मों का वर्णन किया गया है, वे शशिनिशा (उपमेय) से ही संबद्ध प्रतीत होते हैं, प्रस्तुताप्रस्तुत-शशिनायक और निशानायिका-दोनों के साथ साधारण धर्म के रूप में संबद्ध नहीं होते। उपमा में वर्णित धर्म उपमेयनिष्ठ होते हैं, जब कि उत्प्रेक्षा तथा समासोक्ति में अप्रस्तुत तथा प्रस्तुत दोनों में घटित होने वाले धर्मों की आवश्यकता होती है। इसलिए यह शंका होना संभव है कि उपर्युक्त काव्य में निबद्ध धर्म जब चन्द्रनिशापक्ष में ही घटित होते हैं, तो वे उत्प्रेक्षा तथा समासोक्ति से संवेद्य अप्रस्तुत के साथ कैसे घटित होंगे। इसी शंका का निराकरण करते हुए कहते हैं कि यद्यपि दप्त काव्य में प्रयुक्त धर्म चन्द्रमा तथा रात्रि के ही पक्ष में ठीक बैठते हैं, तथा वे ऐसे साधारण धर्म नहीं हैं कि चन्द्रमा-रात्रि की भांति नायक-नायिका के पक्ष में घटित हो सकें
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy