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________________ विवृतोक्त्यलकारः २५५ 'चेतो नलं कामयते मदीयं नान्यत्र कुत्रापि च साभिलाषम्' इति दमयन्तीवा. क्यादिकमप्युदाहरणम् । इदं शब्दशक्तिकोडीकृतगुप्ताविष्करणम् । अर्थशक्तिमूलगुप्तार्थाविष्करणं यथा गच्छाम्यच्युत ! दर्शनेन भवतः किं तृप्तिरुत्पद्यते किं चैवं विजनस्थयोर्हतजनः संभावयत्यन्यथा । इत्यामन्त्रणभङ्गिसूचितवृथावस्थानखेदालसा. __ माश्लिष्यन् पुलकोत्कराञ्चिततनुर्गोपी हरिः पातु वः॥ . अत्र 'गच्छाम्यच्युत !' इत्यामन्त्रणेन 'त्वया रन्तुं कामेच्छया स्थितं तन्न लब्धम्' इत्यर्थशक्तिलभ्यं वस्तु तृतीयपादेनाविष्कृतम् । सर्वमेतत्कविनिबद्धवक्तगुप्ताविष्करणोदाहरणम् । कविगुप्ताविष्करणं यथासुभ्र ! त्वं कुपितेत्यपास्तमशनं त्यक्ताः कथा योषितां दूरादेव विवर्जिताः सुरभयः स्रग्गन्धधूपादयः। कोपं रागिणि मुश्च मय्यवनते दृष्टे प्रसीदाधुना सत्यं त्वद्विरहाद्भवन्ति दयिते ! सर्वा ममान्धा दिशः॥ को चाहता है), और कोई दूसरी जगह मेरी अभिलाषा नहीं (मेरा मन किसी दूसरे राजा में साभिलाष नहीं है')-इत्यादि दमयंतीवाक्यादि भी विवृतोक्ति के ही उदाहरण हैं। "यहाँ शब्दशक्ति (श्लिष्ट प्रयोग तथा अभिधामूलाग्यअना) के द्वारा गुप्त वस्तु का प्रकटीकरण पाया जाता है। अर्थशक्ति मूल गुप्त वस्तु के प्रकाशन का उदाहरण निम्न पद्य है। _ 'हे अच्युत, मुझे जाने भी दो, भला तुम्हारे दर्शन से क्या तृप्ति मिल सकती है ! इस तरह हमें एकांत में खड़े देख कर, तुम्हीं सोचो, ऐसे-वैसे लोग, क्या समझेंगे -इस प्रकार आमंत्रण (सम्बोधन) तथा भावभंगी के द्वारा अपने व्यर्थ के रुकने की वेदना से दुखी गोपिका को बाहुपाश में पकड़ आनन्द से रोमांचित हो आलिंगन करते कृष्ण आप लोगों की रक्षा करें।' ('तुम बड़े मूर्ख हो, ब्यर्थ हीक्यों समय खो रहे हो, तुम्हारे दर्शन या बाब सुरतादि से तो कोई तृप्ति मिल नहीं रही, हम लोगों के बारे में लोगों ने यह तो समझ ही लिया होगा, फिर तुम रतिक्रीड़ा में प्रवृत्त क्यों नहीं होते'-यह गोपी का आशय है, जो 'इत्यामन्त्रण-भङ्गिसूचितवृथावस्थानखेदालसाम्' पद के द्वारा कवि ने स्पष्ट कर दिया है।) यहाँ 'गच्छाम्यच्युत' इस सम्बोधन के द्वारा 'तुमने रमण करने के लिए. मुझे रोका था, वह मुझे प्राप्त न हो सका' इस प्रकार अर्थशक्ति लभ्य वस्तु को कवि ने पथ के तृतीयचरण के द्वारा प्रकट कर दिया है। यह सब कविनिवद्धवक्ता के द्वारा गुप्त आशय के प्रकटीकरण के उदाहरण हैं। कभी कभी कवि स्वयं भी अपने गुप्त आशय को स्पष्ट करता है, जैसे निम्न पच में :__'हे सुन्दर भौहों वाली हे प्रिये (हे रष्टि), तुम नाराज हो ऐसा समझ कर मैंने खाना पीना भी छोड़ दिया, युवतियों की बातें करना छोड़ दिया, सुगन्धित मालाएँ, गन्धधुपादि
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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