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________________ २५४ कुवलयानन्दः कम्पः को वा गुरुस्ते किमिह बलभिदा जृम्भितेनात्र याहि । प्रत्याख्यानं सुराणामिति भयशमनच्छमना कारयित्वा यस्मै लक्ष्मीमदाद्वः स दहतु दुरितं मन्थमुग्धः पयोधिः ।। इदं परवञ्चनाय गुप्ताविष्करणम् । त्रपागुप्ताविष्करणं यथादृष्टया केशव ! गोपरागहृतया किंचिन्न दृष्टं मया तेनेह स्खलितास्मि नाथ ! पतितां किं नाम नालम्बसे । एकस्त्वं विषमेषुखिन्नमनसां सर्वाबलानां गति. र्गोप्यैवं गदितः सलेशमवताद्रोष्ठे हरिवश्विरम् ॥ अत्र कृष्णस्य पुरतो विषमे परिस्खलनमभिहितवत्यास्तं कामयमानाया गोपिकाया वचने विषमपथस्खलनपतनत्राणसंप्रार्थनारूपेण झटिति प्रीयमानेनार्थन गप्तं विवक्षितमर्थान्तरं सलेशं ससूचनमित्यनेनाविष्कृतम् । एवं नैषधादिष, वाले श्वास को छोड़ दे (पवन को छोड़ दे), यह तेरे महान् कम्प क्यों है, (तुझे जल के रक्षक (कम्प-कं जलं पातीति कम्पः) वरुण से क्या, वह तो तेरे गुरु है अथवा तुझे वरुण से क्या, तथा बृहस्पति से क्या), इस बल का नाश करने वाली जंभाई से क्या लाभ (तुझे बल के शत्रु इन्द्र से क्या लाभ)? इस प्रकार लक्ष्मी के भय को शांत करने के व्याज से अन्य देवताओं के वरण का प्रत्याख्यान कर मंथन के कारण मूर्ख समुद्र ने जिस विष्णु के लिए लक्ष्मी रान की, वह विष्णु आप लोगों के पापों को जला दे। ___यहाँ 'प्रत्याख्यान' इत्यादि तृतीय चरण के द्वारा कवि ने गुप्त वस्तु का आविष्करण कर दिया है, अतः विवृतोक्ति अलङ्कार है। कभी कवि लजा के द्वारा गुप्त वस्तु को उद्घाटित कर देता है। त्रपागुप्ताविष्करण का उदाहरण निम्न है:__ कोई गोपिका कृष्ण से कह रही है : 'हे केशव, गायों से उड़ी धूल से तिरोहित आँखों से मैं मार्ग को न देख सकी, इसलिए मैं मार्ग में गिर पड़ी हूँ। हे नाथ, गिरी हुई मुझे क्यों नहीं उठाते हो ? उन बलहीन लोगों के तुम ही अकेले आश्रय हो, जो मार्ग में चलने से श्रांत होकर गिर पड़े हैं, (हे केशव, गोपालक तुम्हारे प्रति प्रेमाविष्ट होने के कारण में उचित अनुचित का विचार नहीं कर सकी हूँ इसी से मैं मार्गभ्रष्ट हो गई हूँ, हे नाथ, चरित से भ्रष्ट मेरा आलम्बन क्यों नहीं करते? कामदेव के द्वारा खिन्न मन वाली स्त्रियों के तुम्ही एक मात्र आश्रय हो) इस प्रकार गोपी के द्वारा व्याजपूर्वक कहे गये कृष्ण आप लोगों की सदा रक्षा करें। यहाँ कृष्ण के सम्मुख विषमार्ग में परिस्खलन की बात कहती हुई, कृष्ण के साथ रमण करने की इच्छा वाली गोपिका के इस वचन में विषम पथस्खलन, तथा गिरने से बचाने की प्रार्थना वाले अर्थ के झट से प्रतीत होने पर, इस के द्वारा गुप्त विवक्षित रमणरूप' अर्थ कवि ने 'सलेशं' पद के द्वारा सूचित कर स्पष्ट कर दिया है। इसी तरह 'नैषधाद में 'मेरा चित्त लंका में निवास करने की इच्छा नहीं करता (मेरा चित्त नल
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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