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________________ २५२ कुवलयानन्दः ल्पनया भावाविष्करणमिति । अतः प्राक् लिखितेषु येषूदाहरणेषु संकेतकालमनसं, पुंस्त्वं तन्व्या व्यञ्जयन्ती, भामा जुगूहेति भावाविष्करणमस्ति तेष्वेव तत्तदलंकार इति ।। १५३ ॥ ८७ गूढोक्त्यलङ्कारः गूढोक्तिरन्योद्देश्यं चेद्यदन्यं प्रति कथ्यते । वृषापेहि परक्षेत्रादायाति क्षेत्ररक्षकः ॥१५४ ॥ यं प्रति किंचिद्वक्तव्यं तत्तटस्थैर्माज्ञायीति तदेव तदन्यं कंचित्प्रति श्लेषेणो. च्यते चेत् सा गूढोक्तिः । वृषेत्याधुदाहरणम् । इह परकलत्रमुपभुञ्जानं कामुकं प्रति वक्तव्यं परक्षेत्रे सस्यानि भक्षयन्तं कंचिदुक्षाणं समीपे चरन्तं निर्दिश्य कथ्यते । नेयमप्रस्तुतप्रशंसा, कार्यकारणादिव्यङ्ग थत्वाभावात् । नापि श्लेषमात्रम् ; अप्रकृतार्थस्य प्रकृतार्थान्वयित्वेनाविवक्षितत्वात् । तस्य केवलमितरवञ्चनार्थ निर्दिष्टतया विच्छित्तिविशेषसद्भावात् । के साथ 'इति पृच्छन्तमध्वानं कामिन्याह ससूचनं' जोड़ देने पर-'इस प्रकार रास्ता पूछते किसी राहगीर से किसी कामुक स्त्री ने सूचना करते हुए कहा-'इस अर्थान्तर की कल्पना के करने पर अलङ्कारत्व हो ही जाता है, क्योंकि यहाँ वाक्यार्थ की प्रधानता हो जाती है। हमने वृत्तिभाग में तत्तत् अलङ्कार के प्रकरण में 'संकेतकालमनसं' 'पुस्त्वं तन्व्या व्यंजयन्ती' 'भामा जुगृह' आदि जो उदाहरण दिये हैं, उनमें यह भावाविष्करण स्पष्ट है, इसलिए वहाँ अलङ्कारस्व स्पष्ट ही है। (भाव यह है, कारिकाभाग के इन अलङ्कारों के उदाहरणों में यद्यपि भवनित्व है, तथापि जयदेवादि के द्वारा इनका तत्तदलंकार प्रकरण में उपन्यास होने से हमने यहाँ उदाहरण के रूप में रख दिया है, वैसे यदि इनकी अर्थान्तरकल्पना कर वाध्यरूप में भावाविष्करण कर दिया जाय तो ये अलंकार के ही उदाहरण हो जायेंगे। वृत्तिभाग के उदाहरणों में भावाविष्करण स्पष्ट होने के कारण अलंकारत्व है ही।) टिप्वणी-इस पद्य का पूर्वार्द्ध प्रसिद्ध प्राकृतगाथा का संस्कृत रूपान्तर है : उअ णिच्चलनिप्पंदा मिसिणीपत्तम्मिरहह बलाआ। णिम्मलमरगअभाअणपरिद्विआ संखसुत्ति व्व ॥ ८७. गूढोक्ति अलङ्कार १५४-जहाँ किसी एक को लक्षित कर किसी दूसरे ही से कोई बात कही जाय, उसे गूढोक्ति अलङ्कार कहते हैं। जैसे (कोई सखी किसी उपपति को-जो परकलन के साथ रमण कर रहा है सावधान करती कह रही है) हे बैल दूसरे के खेत से हट जा, वह देख खेत का रखवाला आ रहा है। जिस व्यक्ति से कुछ कहना है, वही समझ सके, दूसरा तटस्थ व्यक्ति उसे न समझ ले, इसलिए जहाँ किसी व्यक्ति से श्लेष के द्वारा कुछ कहा जाय, वहाँ गूढोकि अलङ्कार होता है। 'वृषापेहि' आदि कारिकाध इसका उदाहरण है। यहाँ यह उक्ति किसी परकलत्र का उपभोग करते कामुक के प्रति अभिप्रेत है किन्तु यह समीप में ही दूसरे के खेत में धान को चरते बैल से कही गई है। यहाँ प्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार नहीं है। क्योंकि अप्रस्तुत प्रशंसा में या तो कार्य के द्वारा कारण की व्यञ्जना की जाती है या कारण के द्वारा कार्य
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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