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________________ व्याजोक्त्यलङ्कारः नलिनीदले बलाका मरकतपात्र इव दृश्यते शुक्तिः । इति मम सङ्केतभुवि ज्ञात्वाभावं तदात्रवीदालीम् ॥ २५१ इत्यादिष्वपिसूक्ष्मालङ्कारः प्रसरति । अत्र श्लोके तावत् 'किमावयोः सङ्केतस्थानं भविष्यति ?' इति प्रश्नाशयं सूचयति कामुके तदभिज्ञया विदग्धया तदा सखीं प्रति साकूतमुक्तमिति सूक्ष्मालङ्कारो भवति । यतोऽत्र बलाकाया मरकतपाप्रतिष्ठित शुक्त्युपमया तस्या निश्चलत्वेनाश्वस्तत्वं तेन तस्य प्रदेशस्य निर्जनत्वं तेन ‘तदेवावयोः संकेतस्थानम्' इति कामुकं प्रति सूचनं लक्ष्यते । न चात्र ध्वनिराशंकनीयः, दूरे व्यज्यमानस्यापि संकेतस्थानप्रश्नोत्तरस्य स्वोक्त्यैवाविष्कृतत्वात् । एवं पिहितालंकारेऽप्युदाहार्यम् । इदं चान्यदवावधेयम्- 'यत्रासौ वेतसी पान्थ' इत्यादिषु गूढोत्तरसूक्ष्मपिहितव्याजोक्तयुदाहरणेषु भावो त स्वोक्तयाविष्कृतः किंतु वस्तुसौन्दर्यबलाद्वक्तृबोद्धव्यविशेषविशेषिताद्गम्यः । तत्रैव वस्तुतो नालंकारत्वं, ध्वनिभावास्पदत्वात् । प्राचीनैः स्वोक्त्याविष्करणे सत्यलंकारास्पदताऽस्तीत्युदाहृतत्वादस्माभिरप्युदाहृतानि । शक्यं हि 'यत्रासौ वेतसी पान्थ ! तत्रेयं सुतरा सरित् । इति पृच्छन्तमध्वानं कामिन्याह ससूचनम् ।' इत्याद्यर्थान्तरक - 'कोई नायक मित्र से कह रहा है-' मुझे संकेतस्थल के विषय में जिज्ञासु जानकर उस नायिका ने सखी से कहा, 'हे सखि देख तो इस कमल के पत्ते पर यह बगुला इसी तरह शान्त तथा निश्चल बैठा है, जैसे किसी नीलम के पात्र में कोई सीप रखी हो।' इस श्लोक में कोई नायिका साकूत उक्ति का प्रयोग कर रही है। किसी कामुक ने नायिका के प्रति इस प्रश्नाशय की सूचना की है कि 'हमारे मिलने का स्थान कौन सा होगा ?' इसे समझकर चतुर नायिका अपनी सखी से साकूत उक्ति कह रही है, अतः यहाँ सूक्ष्म अलङ्कार है । यहाँ नदी तट पर बगुलों की पाँत मरकतमणि के पात्र पर स्थित सीप की तरह निश्चल, शान्त तथा विश्वस्त होकर कमलपत्र पर बैठी है, इस स्थिति से उस प्रदेश की निर्जनता की तथा 'यह हम दोनों का संकेतस्थल होगा' इस बात की सूचना दी गई है । इस पद्य में ध्वनिकाव्य ( वस्तु से वस्तु की ध्वनि ) नहीं माना जाय । यद्यपि यहाँ संकेतस्थान का प्रश्नोत्तर व्यङ्गय रूप में प्रतीत हो रहा है, तथापि उसकी प्रतीति स्वोक्कि से ( वाच्यरूप में ) ही हो रही है । ( भाव यह है, इस श्लोक के उत्तरार्ध में 'इति मम संकेतभुवि ज्ञात्वा भावं तदाश्रवीदालीं" कहने से वह व्यङ्गय न रह कर वाच्य हो गया है। यदि केवल पूर्वार्ध के ही भाव का प्रयोग होता, जैसा कि 'पश्य निलश्व......शंखशुक्तिरिव वाली गाथा में है, तो ध्वनि हो सकता था ।) इसी तरह पिहितालङ्कार में भी 'चेष्टित' शब्द के द्वारा उक्ति का भी समावेश हो जाता है। इसके अतिरिक्त इन अलङ्कारों में यह बात भी ध्यान देने की है । 'यत्रासौ वेतसीपान्थ' इत्यादि गूढोत्तर, सूचम पिहित तथा व्याजोक्ति के उदाहरणों में स्वाभिप्राय की प्रतीति उक्ति के कारण नहीं होती, अपि तु वस्तुसौन्दर्य तथा उक्ति का वक्ता तथा बोद्धव्य कौन हैं, इस विशिष्ट ज्ञान के कारण उसकी प्रतीति होती है । इन्हीं स्थानों पर वस्तुतः अलङ्कारत्व नहीं है, क्योंकि ये ध्वनि के उदाहरण हैं तथा यहाँ ध्वनित्व है। किन्तु प्राचीन आलङ्कारिकों ने अपने ढङ्ग से इनमें अलङ्कारत्व स्पष्ट किया है, अतः हमने भी इन्हें अलङ्कार के उदाहरणों के रूप में उपन्यस्त किया है। वैसे 'यत्रासौ वेतसीपान्थ तत्रे -सुतरा सरित्' इस पूर्वार्ध
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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