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________________ तद्गुणालङ्कारः mim २३५ मयोऽङ्गेषु, आकाशमयः स्वान्तेषु पञ्चमहाभूतमयो मूर्त इवादृश्यत निहतप्रतिसामन्तान्तःपुरेषु प्रतापः । ' एवमष्टलोकपालनवग्रहादीनां प्रसिद्धसहपाठानां यथाकथंचित्प्रकृतोपमानोपरञ्जकतादिप्रकारेण निवेशने रत्नावल्यलंकारः । प्रकृतान्वयं विना क्रमिकतत्तन्नाना श्लेषभङ्गया निवेशने क्रमप्रसिद्धरहितानां प्रसिद्धसहपाठानां नवरत्नादीनां निवेशनेऽप्ययमेवालंकारः ॥ १४० ॥ ७५ तद्गुणालङ्कारः तद्गुणः स्वगुणत्यागादन्यदीयगुणग्रहः पद्मरागायते नासामौक्तिकं तेऽधरत्विषा ॥ १४१ ॥ यथा वा, - वीर ! त्वद्रिपुरमणी परिधातुं पल्लवानि संस्पृश्य | न हरति वनभुवि निजकररुहरु चिखचितानि पाण्डुपत्रधिया || १४१ ॥ मूर्त दिखाई पड़ता था । वह शत्रु नारियों के हृदय में अग्निमय था, उनके नेत्रपुटों में जलमय ( अश्रुमय) था, श्वासों में वायुमय था, अङ्गों में पृथ्वीमय ( क्षमामय ) ( समस्त पीडा को सहने की क्षमता होने के कारण ) था, तथा अन्तःकरण में आकाशमय था (शत्रुनारियों का अन्तःकरण शून्य था ) । इस प्रकार स्पष्ट लोकपाल, नवग्रह आदि प्रसिद्ध सहपाठ वस्तुओं का जहाँ प्रकृत के उपमान या उपरञ्जक के रूप में वर्णन किया जाय, वहाँ रत्नावली अलंकार होता है । प्रकृत से सम्बद्ध न होने पर भी जहाँ उन उन सहपाठ नवग्रहादि वस्तुओं का श्लेषभङ्गी से प्रयोग किया जाय, वहाँ प्रसिद्धक्रम के न होने पर भी यही अलङ्कार होता है । ७५. तद्गुण अलङ्कार ७५ - जहाँ एक पदार्थ अपने गुण को छोड़ कर अन्य गुण को ग्रहण कर ले, वहाँ तद्गुण अलङ्कार होता है । जैसे, हे सुन्दरि, तेरे नाक का मोती ओठ की कान्ति से पद्मराग मणि हो जाता है । (यहाँ सफेद मोती अपने गुण 'श्वेतिमा' को छोड़कर भोठ की 'ललाई' को ग्रहण कर लेता है, अतः तद्गुण अलङ्कार है । ) टिप्पणी- आलंकारिकों ने अपने गुण को छोड़कर अपने से उत्कृष्ट समीपवर्ती वस्तु के गुण ग्रहण को तद्गुण माना है । दीक्षित ने इसका पूरा संकेत नहीं किया है। पण्डितराज की परिभाषा यों हैं:- स्वगुणत्यागपूर्वकं स्वसंनिहितवस्त्वन्तर सम्बन्धिगुणग्रहणं तद्गुणः । ( रसगङ्गाधर पृ० ६९२ ) विश्वनाथ ने उत्कृष्ट वस्तु का संकेत किया है :- तद्गुणः स्वगुणत्यागादत्युत्कृष्टगुणग्रहः । मम्मट ने भी 'अरयुज्ज्वलगुणस्य' कहा है। इसका दूसरा उदाहरण यह है : कोई कवि किसी राजा की प्रशंसा कर रहा है। हे वीर, वन में विचरण करती तुम्हारी शत्रुरमणियाँ पहनने के लिए पल्लवों को हाथ से छूती हैं, किन्तु अपने नाखूनों की श्वेत कान्ति से पीले पड़े पल्लवों को पके पत्ते समझ कर छोड़ देती हैं ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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