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________________ २३४ कुवलयानन्दः यथा वा,लीलाब्जानां नयनयुगलद्राधिमा दत्तपत्रः कुम्भावेतौ कुचपरिकरः पूर्वपक्षीचकार | भ्रूविभ्रान्तिर्मदनधनुषो विभ्रमानन्ववादी - द्वक्त्रज्योत्स्ना शशधररुचं दूषयामास यस्याः ॥ अत्र पत्रदानपूर्वपक्षोपन्यासानुवाददूषणोद्भावनानि बुधजनप्रसिद्धक्रमेण न्यस्तानि | प्रसिद्धसहपाठानां प्रसिद्धक्रमानुसरणेऽप्येवमेवालंकारः । यथा वा, 'यस्य वह्निमयो हृदयेषु, जलमयो लोचनपुटेषु, मारुतमयः श्वसितेषु, क्षमा आवासभूत कच्छप हैं, कच्छपावतार), रस से युक्त हैं (रसा-पृथिवी-के द्वारा आलिङ्गित है, वराहावतार), आनन्दरूपी एकमात्र रस वाले हैं (प्रह्लाद के प्रति प्रीति वाले हैं, नृसिंहावतार), धीरे धीरे वदरामलकादिपरिणामलाभ से बढ़े हैं (क्रम-चरणविक्षेप-के द्वारा बढ़े हैं, वामनावतार), पर्वत की गुरुता को चुनौती देने वाले हैं (राजाओं के गौरव का नाश करने वाले हैं. परशुरामावतार), चक्रवाक के समान हैं (सीतावियोग के कारण आतुर होकर चक्रवाक से स्पर्धा करने वाले-चक्रवाक को शाप देने वाले हैं, रामावतार), सुख के धारण करने वाले, सुखदायक हैं (भोग (फणों) को धारण करने वाले हैं, शेषावतार बलभद्र); कामोद्दीप्ति करने वाले हैं, (शरीर के विरुद्ध (अनङ्ग) मौन भोगत्याग समाधि आदि का आचरण करने वाले हैं, बुद्धावतार); तथा इन्द्रियों (ख) में आसक्त तथा उन्मुख (उच्चूचुक) हैं (अश्व की वल्गा के प्रति उन्मुख है, कल्कि -अवतार)। (यहाँ दसों अवतारों का वर्णन प्रसिद्धक्रम से किया गया है।) टिप्पणी-स्तनों को चक्रवाकयुगल की उपमा दी जाती है । प्रसिद्धक्रम के लिए यह पद्य देखिये :वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्विभ्रते दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते । पौलस्त्यं दलते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते ___ म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ॥ अथवा जसे कोई कवि नायिका के तत्तदङ्गों के उपमानों की भर्सना करता कह रहा है। इस सुन्दरी के नेत्रद्वय की दीर्घता ने लीलाकमलों को पत्रदान दे दिया है, विस्तृत कुचयुगल ने हाथी के दोनों गण्डस्थलों को पूर्वपक्ष बना दिया है, भौंहों के विलास ने कामदेव के धनुष की लीलाओं का अनुवाद कर दिया है, तथा मुखकान्ति ने चन्द्रमा की ज्योस्ना को दूषित कर दिया है। - यहाँ पत्रदान, पूर्वपक्ष, अनुवाद, दूषणोद्भावन आदि का उसी क्रम से वर्णन किया गया है, जिस क्रम से वे पण्डितों में प्रसिद्ध हैं, अतः यहाँ भी रत्नावली अलङ्कार है। प्रसिद्ध सहपाठ (जिनका एक साथ वर्णन होता है) अर्थों के प्रसिद्धक्रम के अनुसार वर्णन करने पर भी यही अलङ्कार होता है । जैसे निम्न गद्यांश में जिस राजा का प्रताप मारे हुए शत्रु राजाओं के अन्तःपुरों में पञ्चमहाभूत के रूप में
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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