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यहाँ प्रस्तुत वर्ण्यविषय अल्पविषयक बुद्धि से सूर्य वंश का वर्णन करना है । तुच्छ बुद्धि से सूर्यकुल के वर्णन का उपक्रम करना, छोटी सी डोंगी से समुद्र को तैरने की इच्छा करना है । यहाँ कवि ने वर्ण्य विषय के धर्म 'सूर्यवंश का वर्णन करने' का उल्लेख न कर उसके प्रतिबिम्ब 'डोंगी से समुद्र तैरने की इच्छा' का वर्णन किया है।' अतः यहाँ निदर्शना नहीं है, ललित है । यदि यहाँ कवियों कहना - 'मेरा अल्पविषयक बुद्धि से सूर्य वंश का वर्णन करने का उपक्रम करना उडुप से सागर की तैरने की इच्छा करना है' - तो निदर्शना हो सकती थी ।
मम्मटादि ने ललितालङ्कार नहीं माना है, वस्तुतः यहाँ निदर्शना ही मानते हैं । नव्य आलङ्कारिकों का भी एक दल ललित अलङ्कार को नहीं मानता। स्वयं पंडितराज ने ही इनके मत का उल्लेख किया है । इन लोगों के मतानुसार ललित तथा निदर्शना के स्वरूप में कोई विलक्षणता नहीं पाई जाती, अत: इन्हें अभिन्न ही मानना चाहिए । 'निदर्शनाललितयोस्तु स्वरूपावैलण्यं प्रदर्शितमित्ये कालंकारत्वमेव' इत्याहुः । ( रस० पृ० ६७७ ) इस पक्ष के विद्वानों का कथन है कि ललित का समावेश आर्थी निदर्शना में मजे से हो सकता है । अलंकार कौस्तुभकार विश्वेश्वर का यही मत है । कौस्तुभ के निदर्शनाप्रकरण में ललितालंकार को मानने वाले पूर्वपक्षी के मत का विस्तार से उल्लेख कर विश्वेश्वर ने सिद्धांत पक्ष यही स्थिर किया है कि ललित अलग से अलंकार नहीं है । वे बताते हैं कि इस विषय में कोई विवाद नहीं कि जहाँ एक धर्मिक प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों के व्यवहारों का उपादान पाया जाय, वहीं निदर्शना होती है तथापि वाक्यार्थनिदर्शना वहाँ होती है, जहाँ दो व्यवहारों के धर्मी में परस्पर अभेद प्रतिपादन करने से उनके दोनों व्यवहारों में भी परस्पर अभेद आक्षिप्त हो जाता है । जब हम देखते हैं कि वाक्यार्थ निदर्शना में धर्मों प्रस्तुताप्रस्तुत ) में अभेद होने से उनके व्यवहार या धर्म में भी अभेद होता है, तो यह जरूरी नहीं है कि यह सामानाधिकरण्य श्रौत ( शाब्द ) ही हो, यह आर्थ भी हो सकता है। इस तरह प्रस्तुत अर्थ के अनुपादान करने पर भी यदि आर्थ अभेद प्रतीत होता है, तो वहाँ निदर्शना ही मानना उचित होगा । 'क्क सूर्य सागरम्' में यही बात पाई जाती है, यहाँ अल्प बुद्धि से सूर्य वंश वर्णन शब्दतः उपात्त नहीं है, किंतु उसका तथा उडुप द्वारा समुद्रतितीर्षा का आर्थ अभेद प्रतीत होता ही है, अतः इसमें निदर्शना का लक्षण पूरी तरह घटित हो ही जाता है । यदि केवल इसीलिए ललित को अलग से अलंकार माना जाय कि यहाँ वर्ण्य विषय के धर्म के स्थान पर उसके प्रतिबिंबभूत धर्म का उपादान किया जाता है, तो फिर लुप्तोपमा को भी उपमा से सर्वथा भिन्न अलंकार मानना पड़ेगा ।
'यद्यप्येकधर्मिकप्रस्तुताप्रस्तुतय्यव हारद्वयोपादान निबंधना निदर्शनेत्यत्र विवादाभावः । तथापि व्यवहारद्वयवद्धर्म्यभेदप्रतिपादनाक्षिप्तो व्यवहारद्वयाभेद इति वाक्यार्थनिदर्शनास्वरूपम् । तत्र च प्रतिपादनं श्रौतमेवेत्यत्र नाग्रहः; किंतु प्रतिपादन मात्रम् । एवं च प्रस्तुतार्थस्य शाब्दानुपादानेऽपि आर्थं तदादायैव निदर्शनायामेवतदन्तर्भाव उचितः । अन्यथा लुप्तोपमादेरप्युपमाबहिर्भावापत्तेः ।' ( अलंकार कौस्तुभ पृ० २६८ )
१. देखिये - कुवलयानंद पृ० २१८ ।
साथ ही - ' एवं च 'क्क सूर्य सागरम्' इत्यत्र काव्यप्रकाशकारी यन्निदर्शना मुदाहार्षीत्तदसंगतमैव । ललितस्यावश्याभ्युपगम्यत्वान्निदर्शनाया अत्राप्राप्तेश्च । तदित्थं ललितस्यालंकारान्तमुरीकुर्वता - माशयः । ' ( रसगंगाधर पृ० ६७५ )