SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३० ] है, वही वेश्या को वश मे कर सकता है।' यहाँ वेश्या को वश में करना मिथ्या है, इसके लिए कवि 'गगनकुसुमवहन' रूप अन्य मिथ्यात्व की कल्पना की है। पंडितराज ने इस अलंकार का खण्डन किया है तथा वे इसका समावेश प्रौढोक्ति में करते हैं :- एकस्य मिथ्यात्वसिद्धयर्थं मिथ्याभूतवस्त्वंतरकल्पनं मिथ्याध्यवसिताख्य मलंकारान्तरमिति न वक्तव्यम् प्रौढोक्त्यैव गतार्थस्वात्' । (रसगंगाधर पृ० ६७३ ) पंडितराज ने यहाँ यह दलील भी दी है कि मिथ्याध्यवसिति को अलग अलंकार मानने पर तो सत्याध्यवसिति को भी एक अलंकार मानना चाहिए। साथ ही पंडितराज 'वेश्यां वशयेत् खस्रजं वहन्' में उक्त अलंकार न मानकर निदर्शना मानते हैं । (दे० - कुवलयानन्द हिंदी व्याख्या, टिप्पणी पृ० २१३), दीक्षित के इस अलंकार का खण्डन कौस्तुभकार विश्वेश्वर ने भी किया है । वे इसका समावेश अतिशयोक्ति में करते हैं । अतिशयोक्ति प्रकरण के अंत में विश्वेश्वर ने दीक्षित के तीन अलंकारों-प्रौढोक्ति, संभावन तथा मिथ्याध्यवसिति — का, जिनमें प्रथम दो को जयदेव तथा प्रौढोक्ति को पंडितराज भी मानते हैं, खंडन किया है । विश्वेश्वर ने मिथ्याध्यवसिति का अन्तर्भाव ' यद्यर्थीको कल्पनम्' वाली मम्मटोक्त तृतीय अतिशयोक्ति में किया है। : यसु - असंबंधे संबंधरूपातिशयोक्तिः किंचिन्मिथ्यात्वसिद्धयर्थं मिध्यार्थांतरकल्पनाविच्छित्तिविशेषेण मिथ्याध्यवसितेर्भिन्नत्वमिति, तदसत् । यद्यर्थोक्तिरूपातिशयो केर्विशेषस्य दुर्वचत्वात् । ' ( अलंकार कौस्तुभ पृ० २८४ ) वस्तुतः मिथ्याध्यवसिति का अतिशयोक्ति में ही समावेश करना न्याय्य है । ५. ललित :- ललितालंकार का संकेत केवल दो ही आलंकारिकों में पाया जाता है - अप्पय दीक्षित तथा पंडितराज । ललित अलंकार का संकेत रुय्यक, जयदेव, शोभाकर, या यशस्क किसी में नहीं मिलता । ललित अलंकार निदर्शना का ही एक प्ररोह माना जा सकता है, जिसे दीक्षित तथा पंडितराज दोनों ने कई दलीलें देकर स्वतन्त्र अलंकार सिद्ध किया है। निदर्शना गन्यौपम्य कोटि का अलंकार है । जहाँ प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में परस्पर वस्तुसंबंध के होने पर या न होने पर बिंबप्रतिबिंबभाव से दोनों का उपादान किया जाय तथा उनमें ऐक्य समारोप हो, वहाँ निदर्शना पाई जाती है। इस प्रकार निदर्शना में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों शब्दोपात्त होते हैं । कभीकभी कवि ऐसा करता है कि प्रस्तुत वृत्तान्त का वर्णन करते हुए उससे संबंध विषय या धर्म का वर्णन न कर उसके प्रतिबिंबभूत अन्य धर्म का वर्णन कर देता है, ऐसी स्थिति में निदर्शना तो होगी नहीं, क्योंकि कवि ने दोनों - प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत - विषयों का पूर्णतः वर्णन नहीं किया है; अतः यहाँ दीक्षित ललित अलंकार मानते हैं। उदाहरण के लिए हम कालिदास का निम्न पद्म ले लें: । क सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः । तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥ "कहाँ सूर्य कुलोत्पन्न रघुवंशी राजाओं का वंश और कहाँ मेरी तुच्छ बुद्धि ? मैं तो मूर्खता से किसी डोंगो से समुद्र तैरने की इच्छा कर रहा हूँ ।' १. किंचिन्मिथ्यात्वसिद्धयर्थं मिथ्यार्थातरकल्पनम् । मिथ्याध्यवसिति वैश्यां वशयेत् खस्रजं बहन् ॥ ( कुवलयानन्द पृ० २१२ ) २. वर्ये स्याद्वर्ण्यवृत्तान्तप्रतिबिंबस्य वर्णनम् । ललितं निर्गते नीरे सेतुमेषा चिकीर्षति ॥
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy