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________________ २१४ कुवलयानन्दः प्रस्तुते धर्मिणि यो वर्णनीयो वृत्तान्तस्तमवर्णयित्वा तत्रैव तत्प्रतिबिम्बरूपस्य कस्यचिदप्रस्तुतवृत्तान्तस्य वर्णनं ललितम् यथाकथंचिद्दाक्षिण्यसमागततत्कालोपेक्षितप्रतिनिवृत्तनायिकान्तरासक्तनायकानयनार्थ सखी प्रेषयितुकामां नायिकामु. द्दिश्य सख्या वचनेन तव्यापारप्रतिबिम्बभूतगतजलसेतुबन्धवर्णनम्। नेयमप्रस्तुतप्रशंसा प्रस्तुतधमिकत्वात् | नापि समासोक्तिः, प्रस्तुतवृत्तान्त वर्ण्यमाने विशेषणसाधारण्येनसारूप्येणवाऽप्रस्तुतवृत्तान्तस्फूर्त्यभावात् अप्रस्तुतवृत्तान्तादेव रूपादिह प्रस्तुतवृत्तान्तस्य गम्यत्वात् । नापि निदर्शना; प्रस्तुताप्रस्तुतवृत्ता. : यहाँ प्रस्तुत धर्मी नायिका के द्वारा नायक के पास सखी संप्रेषण है, यह नायक के रूठ कर चले जाने के बाद दिया जा रहा है। इस प्रस्तुत वृत्तान्त का कथन न कर कवि ने तत्प्रतिबिंबभूत अन्य वृत्तान्त 'पानी के निकलने पर बांध बांधने की चेष्टा' का वर्णन किया है। अतः यहाँ ललित अलंकार है। टिप्पगी-प्राचीन आारिक इसे अलग से अलंकार नहीं मानते दण्डी मम्मद आदि इसका समावेश आर्थी निदर्शना में करते हैं । पण्डितराज ने इसे अलग से अलंकार माना है-'जहाँ प्रस्तुत धर्मी में प्रस्तुत व्य--हार (धर्म) का उल्लेख न कर अप्रस्तुत वस्तु के व्यवहार ( धर्म ) का पल्लेख किया जाय वहा ललित अलंकार होता है।' (प्रकृतधर्मिणि प्रकृतव्यवहारानुल्लेखेन निरूप्यमाणोऽप्रकृतव्यवहारसम्बन्धो ललितालंकारः-रमगङ्गाधर पृ० ६०४ ) ... प्रस्तुत विषय में जिस वृत्तान्त का वर्णन किया जाना चाहिए उसका वर्णन न कर जहाँ उसी सम्बन्ध में उसके प्रतिबिम्बरूप किसी अन्य अप्रस्तुतवृत्तान्त का वर्णन किया जाय, वहाँ ललित अलङ्कार होता है। (इसी का उदाहरण कारिकार्ध में है, इसी को स्पष्ट करते कहते हैं।) कोई अपराधी नायक किसी तरह नायिका के पास आकर उसे प्रसन्न करने का अनुरे करता है, किन्तु उस समय नायिका उसकी उपेक्षा करती है, अतः बह लौट जाता है । उस अन्य नायिकासक्त लौटे हुए नायक को लिवा लाने के लिए सखी को भेजने की इच्छा वाली नायिका को उद्दिष्ट कर सखी के वचन के द्वारा कवि ने उस ज्यापार के प्रतिबिम्बभूत 'जल के निकलने पर सेतु बन्धन की चेष्टा' का वर्णन किया है। यहाँ अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कार नहीं माना जा सकता, क्योंकि यहाँ यह व्यवहार प्रस्तुत धर्मी (नायकानयनव्यापार) से सम्बद्ध है, जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वर्णित व्यवहार (वृत्तान्त ) केवल अप्रस्तुत से सम्बद्ध होता है । इसी तरह यहाँ समासोक्ति अलङ्कार भी नहीं हो सकता, क्योंकि समासोक्ति में प्रस्तुत वृत्तान्त के वर्णन से अप्रस्तुत वृत्तान्त की न्यञ्जना होती है। समासोक्ति में प्रस्तुत वृत्तान्त का वर्णन किया जाता है तथा समान विशेषण के कारण अथवा सारूप्य के कारण प्रस्तुत से अप्रस्तुत के व्यवहार की व्यञ्जना होती है। इस स्थल पर ऐसा नहीं होता, अतः यहाँ समासोक्ति का क्षेत्र नहीं माना जा सकता। साथ ही यहाँ अप्रस्तुत वृत्तान्त के सारूप्य से ही प्रस्तुत वृत्तान्त की ध्यञ्जना हो रही है। इसके अतिरिक्त इस स्थल में निदर्शना अलङ्कार भी नहीं माना जा सकता। निदर्शना वहीं हो सकती है जहाँ प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों वृत्तान्त स्वशब्दोपात्त हों तथा ऐसी स्थिति में उनमें ऐक्य समारोप हो । यहाँ अप्रस्तुतवृत्तान्त तो स्वशब्दोपात्त है, किन्तु प्रस्तुतवृत्तान्त नहीं। इसी बात को और अधिक पुष्ट करने के लिए तर्क करते हैं कि यदि ऐसा अलङ्कार जो विषय (प्रस्तुत) तथा विषयी (अप्रस्तुत) दोनों के स्वशब्दोपात्त होने पर माना जाता है, केवल विषयी (अप्रस्तुत) के ही प्रयोग
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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