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________________ ललितालङ्कारः २१३ अत्राद्योदाहरणं निदर्शनागर्भम्, द्वितीयं तु शुद्धम् । असंबन्धे संबन्धरूपातिशयोक्तितो मिथ्याध्यवसितेः किंचिन्मिथ्यात्वसिद्धयर्थं मिध्यार्थान्तरकल्पनात्मना विच्छित्तिविशेषेण भेदः ।। १२७ ।। ६६ ललितालङ्कारः वर्ण्ये स्याद्वर्ण्यवृत्तान्तप्रतिबिम्बस्य वर्णनम् । ललितं निर्गते नीरे सेतुमेषा चिकीर्षति ॥ १२ ॥ पहले उदाहरण में निदर्शनागर्भ मिथ्याध्यवसिति है, क्योंकि 'खपुष्पमालाधारण' तथा 'वेश्यावशीकरण' में बिंबप्रतिबिंबभाव से वस्तुसंबंध की सम्भावना पाई जाती है । दूसरा उदाहरण शुद्ध मिध्याध्यवसिति का है । कदाचित् कुछ लोग मिथ्याध्यवसिति को अतिशयोक्ति का ही भेद मानना चाहें, इस शंका के कारण ग्रंथकार इनका भेद बताते हुए कहते हैं कि मिथ्याध्यवसिति का असंबंधे संबंधरूपा अतिशयोक्ति से यह भेद है कि यहाँ किसी विशिष्ट मिथ्यात्व की सिद्धि के लिए अन्य मिथ्या अर्थ की कल्पना की जाती है, अतः इस मिथ्यार्थान्तरकल्पना के कारण इसमें अतिशयोक्ति की अपेक्षा भिन्न कोटि का चमत्कार पाया जाता है। टिप्पणी - मिथ्याध्यवसिति नामक अलंकार केवल अप्पयदीक्षित ही मानते जान पड़ते हैं । अन्य आलंकारिक इसे अतिशयोक्ति का ही भेद मानते हैं। पण्डितराज जगन्नाथ इसे प्रौढोक्ति का भेद मानते हैं । प्रौढोक्ति अलंकार के प्रकरण में वे अप्पयदीक्षित के इसे अलग अलंकार मानने के मत का खण्डन करते हैं। वे बताते हैं कि एक मिथ्यास्त्र की सिद्धि के लिये अन्य मिथ्या वस्तु की कल्पना प्रौढोक्ति में ही अन्तर्भूत होती है । ( एकस्य मिथ्यात्वसिद्धधर्ध मिथ्याभूतवस्त्वन्तरकल्पनं मिथ्याध्यवसिताख्यमलंकारमिति न वक्तव्यम्, प्रौढोक्त्यैव गतार्थत्वात् । (रसगंगाधर पृ० ६७३ ) इसी संबंध में आगे जाकर वे 'वेश्यां वशयेत्खस्रजं वहन् ' वाले उदाहरण की भी जाँच पड़ताल कर इसमें केवल निदर्शना अलंकार घोषित करते हैं, निदर्शनागर्भा मिथ्याध्यवसिति नहीं । (यसु 'वेश्यां वशयेत्खननं वहन्' इति कुवलयानन्दकृता मिथ्याध्यवसितेरुदाहरणं निर्मितं तसु निदर्शनयैव गतार्थम् । निदर्शनागर्भात्र मिथ्याध्यवसितिरिति तु न युक्तम् — वही पृ० ६७३ ) आगे जाकर वे दलाल देते हैं कि यदि मिथ्याध्यवसिति अलंकार माना जाता है, तो बेचारी सत्याध्यवसिति ने क्या बिगाड़ा था कि उसे अलंकार नहीं माना जाता । ( यदि च मिथ्याध्यवसितेरेवालंकारान्तरं, सत्याध्यवसितिरपि तथा स्यात् — वही पृ० ६७३ ) फिर तो निम्न उदाहरण में सत्याध्यवसिति मानी जानी चाहिए : हरिश्चन्द्रेण संशप्ताः प्रगीता धर्मसूनुना । खेलन्ति निगमोरसंगे मातर्गगे गुणास्तव ॥ यहाँ हरिश्चन्द्रादि से संबद्ध गुणों की सत्यता की सिद्धि हो रही है। वस्तुतः ये दोनों प्रौढोक्ति ही भेद हैं। ६६. ललित अलंकार १२८ - जहाँ वर्ण्य विषय के उपस्थित होने पर उससे संबद्ध विषय (धर्म) का वर्णन न कर उसके प्रतिबिंबभूत अन्य ( अप्रस्तुत ) वृत्तान्त का वर्णन किया जाय, वहाँ ललित अलंकार होता है । जैसे, ( कोई नायिका समीप आये अपराधी नायक का तिरस्कार कर बैठती है तथा उसके लौट जाने पर सखी को उसे मनाने भेज रही है, इसे देखकर कोई कवि कह रहा है ।) यह नायिका नदी ( या तालाब ) के पानी के निकल जाने पर अब सेतु (बांध) बांधने की इच्छा कर रही है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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