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________________ २०८ कुवलयानन्दः यद्दन्तिनः कटकटातटान्मिमङ्को र्मक्षूपाति परितः पटलैरलीनाम् ।। १२२-१२३ ।। ६२ विकस्वरालङ्कारः यस्मिन्विशेषसामान्यविशेषाः स विकस्वरः । स न जिग्ये महान्तो हि दुर्धर्षाः सागरा इव ॥ १२४ ॥ यत्र कस्यचिद्विशेषस्य समर्थनार्थं सामान्यं विन्यस्य तत्प्रसिद्धावप्यपरितुष्यता कविना तत्समर्थनाय पुनर्विशेषान्तरमुपमानरीत्यार्थान्तरन्यास विधया वा विन्यस्यते तत्र विकस्वरालङ्कारः । उत्तरार्धं यथाकथञ्चिदुदाहरणम् । इदं तु व्यक्तमुदाहरणम् ( कुमार० १1३ ) -- अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम् | w ' बताइये तो सही, ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो दान को देने वाले ( मदजल से युक्त) व्यक्ति के मूखौं - जड़ों (जल) से युक्त होने पर भी उसका आश्रय न छोड़े ( उसके साथ ही रहना पसंद करे ) ? क्योंकि नदी के पानी में डुबकी लगाने की इच्छा वाले हाथी गण्डस्थल रूपी कटाह से भौंरों का झुण्ड एक दम उड़ गया ।' यहाँ भी सामर्थ्य वाक्य में सामान्य अप्रकृत रूप उक्ति पाई जाती है, उसका समर्थन समर्थक वाक्य की विशेष प्रकृतरूप उक्ति के द्वारा किया गया है । ६२. विकस्वर अलङ्कार पुष्टि सामान्य से की जाय और उसकी दृढ़ता के लिए विशेष का उपादान हो, वहाँ विकस्वर अलङ्कार होता है । सका; महान् व्यक्ति दुष्प्रधर्ष ( अजेय ) होते हैं, जैसे १२४ - जहाँ विशेष की तीसरे वाक्य में फिर से किसी जैसे, उस राजा को कोई न जीत समुद्र अजेय है । यहाँ 'वह राजा अजेय है' यह विशेष उक्ति है, इसकी पुष्टि 'महान् व्यक्ति अजेय होते हैं' इस सामान्य उक्ति के द्वारा की गई है। इसे पुनः पुष्ट करने के लिए 'जैसे समुद्र अजेय है' इस विशेष का पुनः उपादान किया गया है, अतः यहाँ विकस्वर अलङ्कार है । जिस काव्य में किसी विशेष उक्ति के समर्थन के लिए कवि सामान्य उक्ति का प्रयोग करता है, तथा उस समर्थन के सिद्ध हो जाने पर भी पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं हो पाता और उस विशेष उक्ति का समर्थन करने के लिए फिर भी किसी अन्य विशेष उक्ति का प्रयोग उपमान रूप में या अर्थान्तरन्यास के रूप में करता है, वहाँ विकस्वर अलङ्कार होता है । ( वदि प्रथम प्रणाली का आश्रय लिया जायगा तो विकस्वर में प्रथमार्ध में अर्थान्तरन्यास होगा, उत्तरार्ध में उपमा, जैसे 'स न जिग्ये सागरा इव' वाले उदाहरण में। यदि द्वितीय प्रणाली का आश्रय लिया जायगा तो विकस्वर में दोनों जगह अर्थान्तरन्यास होगा, एक में विशेष का सामान्य के द्वारा समर्थन, दूसरे में सामान्य का विशेष के द्वारा समर्थन, जैसे उदाह्रियमाग 'मालिन्य विप्रलम्भ' वाले पद्य में । ) कारिका के उत्तरार्ध में दिया गया उदाहरण जैसे तैसे विस्वर का उदाहरण हैं । इसका स्पष्ट उदाहरण निम्न है | कुमारसम्भव के प्रथम सर्ग से हिमालय का वर्णन हैं। हिमालय में अनेक रत्न की
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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